शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

अब तो हर काम से डर लगता है !

जकल तो घर से बाहर निकलने में भी डर लगता है कि कंही किसी कीड़े-मकौड़े , चींटा-चींटी का कुछ आहत न हो जाये। इसीलिए अभी जब तक सर्दी है तो कम्बल में दुबक ले जब गर्मी आएगी तो सो जाएँगे चादर तान के वैसे भी बचा क्या है इस देश में करने को, अब हमारे होने वाले ष्महाराजष् जनता के सुख के लिए जहर पीने जा रहे हैं और "राजमाता" हैं की अपने बेटे के इस बलिदान को देखकर रोने के लिए कंधा ढूंढ़ रही हैं। वैसे महाराज जब "युवराज" थे तो देश के गरीबों के घर जा जाकर अपना सालाना बहादुरी करतब दिखाया करते थे और रेल से घूम-घूम कर उन्होंने रेलवे का ही बेडा गर्क कर दिया अब ये नया तमाशा उससे आगे की कहानी है। एक और हैं इस देश में "विकासपुरुष" जो इसी उधेड़ बुन में हैं की वो महाराज की गद्दी पर बैठ पाएंगे या नहीं या उनके घर वाले ही उनकी इस ख़्वाबी लंका की लुटिया डुबो देंगे।

मैं तो खुद वैसे ही हैरान हूँ अगर मैं महाराज के लिए कुछ बोलू तो सामन्ती बन जाता हूँ और अगर विकासपुरुष के लिए कुछ कहूँ तो सांप्रदायिक। अब इन्हें कौन समझाए की मुझ जैसा आम आदमी यहाँ दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ में ही उलझा पड़ा है और ये हैं की मुझ गरीब पे ही पिले पड़े हैं। इनकी और इनके चाटुकारों की नौटंकी की तो आदत सी हो गयी है लेकिन कमाल तो तब हो गया जब छोटे-छोटे झुण्ड के लोग बात-बात पर अपनी भावनाए भड़काकर जहाँ जाऊं वहां चले आते हैं धमकाने। अब जब सब आहत हुए तो मैं भी थोडा आहत होकर इस खोज में लग गया कि क्या कुछ ऐसा भी बचा है इस देश में जिससे कोई आहत न होता हो इसी बहाने मैं इन मुगालतों से भी बाख जाऊंगा और एक बढ़िया शोध भी हो जायेगा।

विषय जटिल जरुर है लेकिन नामुमकिन नहीं तो मैंने पहला प्रयास तो ये किया कि  ये पता लगाया जाये की ऐसी भावनाएं कितने प्रकार की हैं जो आहत हो जाती हैं खैर ये बड़ा स्तर है अगर इस शोध हो तो पूरा देश डॉक्टरेट हो जाये।  मैं अभी प्रयास में लगा हूँ कि आहत न होने के लिए क्या बचा है तो सोचा विश्विद्यालय से अच्छा क्या होगा इस काम के लिए तो जब वहां पहुंचा तो देखा द्वार पे ही राम-सीता खुद ही आहत मिल गए मैं तो उलटे पाँव लौट आया  । फिर सोचा शायद कला क्षेत्र से कुछ मिल सकता है तो पहुंचा मैं नीलीनगरी में तो वहां तो "दीदी" की भावनाएं आग उगल रही थीं कला से ही डरने लगा अच्छा हुआ छोड़ दिया उसे भी वरना अभी यहाँ शहरों के शहर में खामखा पिट-पिटा  जाता यहाँ तो तलवार वाली बहुत सारी दीदियाँ थीं।

फिर ख्याल आया की फिल्मे समाज का आइना होती हैं तो उन्हें भी एक बार टटोल लिया जाये लेकिन वहां तो कपडे कंट -छंट के उतरने की नौबत आ गयी। अब बेचारा साहित्य ही था किन्तु यहाँ पर लोग अपनी भावनाएं आहत रखने में गिनीज का रिकॉर्ड बना चुके हैं 20 साल से आहत बैठे हैं और जब साहित्य वालों ने सोचा कि चलो बिसरी बातें भुलाकर कुछ आधुनिक टीमटाम  जुटाकर बहस कराइ जाये तो बेचारे समाज के सेवक को ही थाने ले गए अपनी भावनाएं आहत करके। खैर इस आधुनिकता का भी खेल निराला ही लगा मुझे आप अब फेसबुक पर कुछ लिखो तो शहरी शेरों की सेना आपके पीछे पड़  जाएगी और ट्विटर पर तो सरकारी पंडित राहु-केतु की दशा लगाये बैठे हैं। अब अंततः संगीत में कुछ  उम्मीद थी लेकिन पता नहीं कानों की इस घाटी में वो फिर कब सुना जायेगा।

खैर मैं अभी लगा हूँ प्रयास में अगर आप सुधी पाठको, जो इससे आहत न हुए हों उन्हें कोई विषय मिले तो बताएं जरुर मेरी मेहनत  कुछ कम हो जाएगी और थोडा आराम भी हो जायेगा।

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

तकनीकी विकास जब बाधक हो जाये


जब-जब मैं तकनीक ऐसा रूप देखता हूँ, चित्त को बैचेन पाता हूँ। मानता हूँ तकनीकी विकास जरूरी है और उसके बिना विकास का पहिया चल नहीं सकता लेकिन यह विकास समावेशी हो व सशक्तिकरण से लबरेज हो किन्तु जब यह उल्टा हमारे विकास की आशा को और एक बड़ी जनसँख्या को गरीब बनने को मजबूर कर दे तो अच्छा है की ऐसा तकनीकी विकास न हो।

सुचना क्रांति के युग में मैं मोबाइल के अविष्कार को समावेशी और सशक्तिकरण का सबसे सफल उपकरण मानता हूँ। हर वर्ग की आबादी के लिए इसने अपने आप को उनके सांचे में ढाला और उनकी भाषा में उनसे संवाद स्थापित किया जिससे सम्पूर्ण मानवजाति को सशक्त होने का मौका मिला। इसका आर्थिक रूप से कितना सफल प्रयोग हो सकता है इसका उदाहरण   केन्या देश की एम-पेसा योजना है जिसने के बड़ी आबादी की पहुँच वित्तीय साधनों तक बने है।

खैर मैं यहाँ इस मुद्दे से अलग कुछ बात करना चाहता हूँ, बात दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल के खेलों के समय की है जब शहर की सफाई और सुन्दरता को बढ़ने के लिए तमाम प्रयास किये गए और उन्ही में से एक था शहर से आम रिक्शे हटाकर उनकी जग ई-रिक्शों को दिल्ली में चलाना और इन मेहनतकश रिक्शे वालो को किसी सीमित क्षेत्र में अनुमति प्रदान करना और चरणबद्ध तरीके से इनसे दिल्ली को मुक्ति दिलाना वो तो गनीमत है कोर्ट के आदेश के चलते इस तरह पूर्ण तरह से संभव नहीं हो पाया, लेकिन जो नया खतरा सामने आया वो इन ई-रिक्शों के रूप में। माना ये रिक्शे ईंधन और पर्यावरण के लिए लाभदायक है लेकिन इसके दुसरे पहलु पे भी हमे गौर करना चाहिए।

यहाँ पहले मैं कुछ बात साफ़ कर दूँ की दिल्ली में जो आम रिक्शे हैं उनको चलने वालों में से अधिकांश के पास ये खुद के नहीं हैं और वे ठेकेदारों से प्रतिदिन के किराये पर लेकर इसे चलाते हैं और अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं। इस प्रकार देखा जाये तो अपनी मासिक आय का एक बड़ा हिस्सा उनका इस किराये को चुकाने में ही चला जाता है हालाँकि इसके बाद भी वो योजना आयोग की नीति के अनुसार शहरी गरीब नहीं कहलाते और अपना गुजारा  इस मामूली आय में चलाते हैं। ऊपर से सरकार के द्वारा ये कुछ सीमित क्षेत्रों के लिए अनुमतित हैं अगर इतना भी होता तो ठीक था कम से कम इनके पास रोजगार के कुछ तो साधन बचे थे लेकिन अब जब ई-रिक्शों ने अपना प्रभाव जमाना शुरू किया हैं तो अब इनके समक्ष बेरोजगारी की समस्या मुंह बांये खड़ी है।

ई-रिक्शे एक बार में इनसे अधिक सवारी ले कर जा सकते हैं और वो बैटरी से चलते हैं तो मेहनत की जरुरत ही नहीं और इनकी चालन लागत भी इसीलिए कम बैठती है। ये समय भी बचाते हैं जिसका सीधा फायदा उपभोक्ता को मिलता है और वो इन्हें अपनी वरीयता देकर इसमें सवारी करना पसंद करते हैं और इसका दूसरा फायदा होता है कि इससे उनकी जेब पे बोझ भी कम पड़ता है।

मेरा आशय ये कतई नहीं है की इन ई-रिक्शों को बंद कर देना चाहिए या ये रोजगार छीनने वाले हैं बल्कि दिल्ली की आबादी के हिसाब से देखा जाये तो ये भी कम हैं और ये भी उसमे आराम से खप जायेंगे और आखिर ये भी एक बड़े वर्ग को रोजगार देते हैं लेकिन अगर समस्या है तो इनके प्रचालन की नॆइत को लेकर। और इसके लिए समाज और सरकार दोनों को आगे आना होगा और इस एक वर्ग विशेष को भी विकास की राह का भागिदार बनाना होगा तभी हम समवेशी विकास के लक्ष्य को प्राप्त कर पायेंगे।

समाज क्या कर सकता है? यह हम सबके सामने एक बड़ा सवाल है तो समाज की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है की वो इन मेहनतकश रिक्शे वालों से मोल-तोल की उस आदत को सुधारे जो ईनका वाजिब हक भी मार लेती है आपको ये सोचना होगा की रिक्शा चलने में शारीर की हड्डिय घिस जाती हैं। इन्हें भी संविधान के अनुरूप गरिमामय मानवीय जीवन का हक है तो उनके वाजिब हक को समाज को नहीं मारना चाहिए ताकि वो भी अपना जीवन अपनी गरिमा के अनुसार तो जी सकें।

अब बारी सरकार की है की वो क्या कर सकती है सरकार न जब आम रिक्शों के प्रचालन का सीमांकन किया है तो उसे ई-रिक्शों को भी ऐसे क्षेत्र में प्रोत्साहित करना चाहिए जहाँ ये आम रिक्शे नहीं चलते इससे इन दोनों वर्गों के हित प्रभावित नहीं होंगे और दोनों की आय पर भी सकारात्मक असर होगा। इन्हें उन क्षेत्रों में भी प्रोत्साहित किया जा सकता हैं जहाँ सार्वजानिक परिवहन के अन्य साधन अपेक्षतया कम उपलब्ध हैं इससे ई-रिक्शाचालकों को भी अपनी रिक्शा की लागत वसूलने में लाभ होगा।

दूसरा काम सरकार जो कर सकती है वो ये की जो मौजूदा आम रिक्शा चालक हैं उनकी पहचान कर उन्हें लघुवित्त उपलब्ध कराये ताकि अपने पारंपरिक कार्य में तकनीक को लाकर वो भी इस विकास की दौड़ का हिस्सा बन सकें। अभी अमूमन ठेकेदारों से इन्हें रिक्शा 30-50 रुपये के प्रतिदिन के किराये पर मिलता हैं लेकिन सरकार चाहे तो इन्हें वित्तीय सहायता उपलब्ध कराकर भले ही वो 100-150 रुपये रोज की हो और लघु क़र्ज़ के रूप में देकर इन्हें ई-रिक्शा खरीदने में मदद करे और इन्हें ठेकेदारों के मुकाबले खुद का मालिकाना हक दिलाये। हाल की घटनाओं से सबक लेते हुए इन रिक्शों को भी जीपीएस प्रणाली से लेस किया जाये ताकि नागरिकों और उपभोक्ताओं की सुरक्षा को भी सुनिश्चित किया जा सके।

चूँकि सेवा  का एक यह रूप ये भी है और देश की आर्थिक विकास में सेवा क्षेत्र का योगदान अहम् होता है और अगर हम उसके सभी भागों का समावेशी विकास नहीं करेंगे तो हमे फिर से अन्य समस्याओं से जूझना होगा।
सरकार ऐसा नहीं करती क्यूंकि इसके लिए उसके पास एक बड़ा रोना वित्त की कमी का है और उसे बैंकों के एनपीए बढ़ने का खतरा नज़र आता है लेकिन सरकार के पास तकनीक है तो वह चाहे तो इसे उचित पात्र की पहचान करके मुहैया करा सकती है।
वरना यही तकनीकी विकास हमारा बाधक बन जायेगा और समाज में डिजिटल डिवाइड को बढ़ाएगा। जो हमारे पास उपलब्ध मानवीय पूँजी है वह मात्र एक जनांकिकीय बोझ बन जायेगा और हम उसे मानवीय संसाधन में तब्दील नहीं कर पाएंगे।