आजकल तो घर से बाहर निकलने में भी डर लगता है कि कंही किसी कीड़े-मकौड़े , चींटा-चींटी का कुछ आहत न हो जाये। इसीलिए अभी जब तक सर्दी है तो कम्बल में दुबक ले जब गर्मी आएगी तो सो जाएँगे चादर तान के वैसे भी बचा क्या है इस देश में करने को, अब हमारे होने वाले ष्महाराजष् जनता के सुख के लिए जहर पीने जा रहे हैं और "राजमाता" हैं की अपने बेटे के इस बलिदान को देखकर रोने के लिए कंधा ढूंढ़ रही हैं। वैसे महाराज जब "युवराज" थे तो देश के गरीबों के घर जा जाकर अपना सालाना बहादुरी करतब दिखाया करते थे और रेल से घूम-घूम कर उन्होंने रेलवे का ही बेडा गर्क कर दिया अब ये नया तमाशा उससे आगे की कहानी है। एक और हैं इस देश में "विकासपुरुष" जो इसी उधेड़ बुन में हैं की वो महाराज की गद्दी पर बैठ पाएंगे या नहीं या उनके घर वाले ही उनकी इस ख़्वाबी लंका की लुटिया डुबो देंगे।
मैं तो खुद वैसे ही हैरान हूँ अगर मैं महाराज के लिए कुछ बोलू तो सामन्ती बन जाता हूँ और अगर विकासपुरुष के लिए कुछ कहूँ तो सांप्रदायिक। अब इन्हें कौन समझाए की मुझ जैसा आम आदमी यहाँ दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ में ही उलझा पड़ा है और ये हैं की मुझ गरीब पे ही पिले पड़े हैं। इनकी और इनके चाटुकारों की नौटंकी की तो आदत सी हो गयी है लेकिन कमाल तो तब हो गया जब छोटे-छोटे झुण्ड के लोग बात-बात पर अपनी भावनाए भड़काकर जहाँ जाऊं वहां चले आते हैं धमकाने। अब जब सब आहत हुए तो मैं भी थोडा आहत होकर इस खोज में लग गया कि क्या कुछ ऐसा भी बचा है इस देश में जिससे कोई आहत न होता हो इसी बहाने मैं इन मुगालतों से भी बाख जाऊंगा और एक बढ़िया शोध भी हो जायेगा।
विषय जटिल जरुर है लेकिन नामुमकिन नहीं तो मैंने पहला प्रयास तो ये किया कि ये पता लगाया जाये की ऐसी भावनाएं कितने प्रकार की हैं जो आहत हो जाती हैं खैर ये बड़ा स्तर है अगर इस शोध हो तो पूरा देश डॉक्टरेट हो जाये। मैं अभी प्रयास में लगा हूँ कि आहत न होने के लिए क्या बचा है तो सोचा विश्विद्यालय से अच्छा क्या होगा इस काम के लिए तो जब वहां पहुंचा तो देखा द्वार पे ही राम-सीता खुद ही आहत मिल गए मैं तो उलटे पाँव लौट आया । फिर सोचा शायद कला क्षेत्र से कुछ मिल सकता है तो पहुंचा मैं नीलीनगरी में तो वहां तो "दीदी" की भावनाएं आग उगल रही थीं कला से ही डरने लगा अच्छा हुआ छोड़ दिया उसे भी वरना अभी यहाँ शहरों के शहर में खामखा पिट-पिटा जाता यहाँ तो तलवार वाली बहुत सारी दीदियाँ थीं।
फिर ख्याल आया की फिल्मे समाज का आइना होती हैं तो उन्हें भी एक बार टटोल लिया जाये लेकिन वहां तो कपडे कंट -छंट के उतरने की नौबत आ गयी। अब बेचारा साहित्य ही था किन्तु यहाँ पर लोग अपनी भावनाएं आहत रखने में गिनीज का रिकॉर्ड बना चुके हैं 20 साल से आहत बैठे हैं और जब साहित्य वालों ने सोचा कि चलो बिसरी बातें भुलाकर कुछ आधुनिक टीमटाम जुटाकर बहस कराइ जाये तो बेचारे समाज के सेवक को ही थाने ले गए अपनी भावनाएं आहत करके। खैर इस आधुनिकता का भी खेल निराला ही लगा मुझे आप अब फेसबुक पर कुछ लिखो तो शहरी शेरों की सेना आपके पीछे पड़ जाएगी और ट्विटर पर तो सरकारी पंडित राहु-केतु की दशा लगाये बैठे हैं। अब अंततः संगीत में कुछ उम्मीद थी लेकिन पता नहीं कानों की इस घाटी में वो फिर कब सुना जायेगा।
खैर मैं अभी लगा हूँ प्रयास में अगर आप सुधी पाठको, जो इससे आहत न हुए हों उन्हें कोई विषय मिले तो बताएं जरुर मेरी मेहनत कुछ कम हो जाएगी और थोडा आराम भी हो जायेगा।
मैं तो खुद वैसे ही हैरान हूँ अगर मैं महाराज के लिए कुछ बोलू तो सामन्ती बन जाता हूँ और अगर विकासपुरुष के लिए कुछ कहूँ तो सांप्रदायिक। अब इन्हें कौन समझाए की मुझ जैसा आम आदमी यहाँ दो वक़्त की रोटी के जुगाड़ में ही उलझा पड़ा है और ये हैं की मुझ गरीब पे ही पिले पड़े हैं। इनकी और इनके चाटुकारों की नौटंकी की तो आदत सी हो गयी है लेकिन कमाल तो तब हो गया जब छोटे-छोटे झुण्ड के लोग बात-बात पर अपनी भावनाए भड़काकर जहाँ जाऊं वहां चले आते हैं धमकाने। अब जब सब आहत हुए तो मैं भी थोडा आहत होकर इस खोज में लग गया कि क्या कुछ ऐसा भी बचा है इस देश में जिससे कोई आहत न होता हो इसी बहाने मैं इन मुगालतों से भी बाख जाऊंगा और एक बढ़िया शोध भी हो जायेगा।
विषय जटिल जरुर है लेकिन नामुमकिन नहीं तो मैंने पहला प्रयास तो ये किया कि ये पता लगाया जाये की ऐसी भावनाएं कितने प्रकार की हैं जो आहत हो जाती हैं खैर ये बड़ा स्तर है अगर इस शोध हो तो पूरा देश डॉक्टरेट हो जाये। मैं अभी प्रयास में लगा हूँ कि आहत न होने के लिए क्या बचा है तो सोचा विश्विद्यालय से अच्छा क्या होगा इस काम के लिए तो जब वहां पहुंचा तो देखा द्वार पे ही राम-सीता खुद ही आहत मिल गए मैं तो उलटे पाँव लौट आया । फिर सोचा शायद कला क्षेत्र से कुछ मिल सकता है तो पहुंचा मैं नीलीनगरी में तो वहां तो "दीदी" की भावनाएं आग उगल रही थीं कला से ही डरने लगा अच्छा हुआ छोड़ दिया उसे भी वरना अभी यहाँ शहरों के शहर में खामखा पिट-पिटा जाता यहाँ तो तलवार वाली बहुत सारी दीदियाँ थीं।
फिर ख्याल आया की फिल्मे समाज का आइना होती हैं तो उन्हें भी एक बार टटोल लिया जाये लेकिन वहां तो कपडे कंट -छंट के उतरने की नौबत आ गयी। अब बेचारा साहित्य ही था किन्तु यहाँ पर लोग अपनी भावनाएं आहत रखने में गिनीज का रिकॉर्ड बना चुके हैं 20 साल से आहत बैठे हैं और जब साहित्य वालों ने सोचा कि चलो बिसरी बातें भुलाकर कुछ आधुनिक टीमटाम जुटाकर बहस कराइ जाये तो बेचारे समाज के सेवक को ही थाने ले गए अपनी भावनाएं आहत करके। खैर इस आधुनिकता का भी खेल निराला ही लगा मुझे आप अब फेसबुक पर कुछ लिखो तो शहरी शेरों की सेना आपके पीछे पड़ जाएगी और ट्विटर पर तो सरकारी पंडित राहु-केतु की दशा लगाये बैठे हैं। अब अंततः संगीत में कुछ उम्मीद थी लेकिन पता नहीं कानों की इस घाटी में वो फिर कब सुना जायेगा।
खैर मैं अभी लगा हूँ प्रयास में अगर आप सुधी पाठको, जो इससे आहत न हुए हों उन्हें कोई विषय मिले तो बताएं जरुर मेरी मेहनत कुछ कम हो जाएगी और थोडा आराम भी हो जायेगा।