सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

सैर सुबह की : ईसा खान का मक़बरा

 म तौर पर धूल  और शोरगुल से भरी रहने वाली दिल्ली में सुबह की सैर का आनंद थोड़ा मजेदार होता है यदि वह दक्षिणी दिल्ली में हुमायूँ के मकबरे के बाग़-बगीचों में की जाए। ऐसे ही एक दिन मैं और मनीष भोर में पौ फूटने से पहले ही जा पहुंचे हुमायूँ के मकबरे पर और दिल्ली की एक सुहानी सुबह देखी जो कई मायनों में यादगार रही।

 मनीष और मेरी लंबे  समय से योजना थी कि दिल्ली दर्शन पर निकला जाये और एक-एक करके विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया जाए। सौभाग्य से उस रविवार को मुझे अवकाश मिल गया था ऑफिस से और मनीष का मन भी था इतने सुबह उठकर जाने का अन्यथा रविवार को सुबह कौन नींद ख़राब करता ? हम दोनों ने घर के बाहर से ऑटोरिक्शा लिया और पहुंच गए हुमायूँ के मकबरे पर।

 टिकट वगैरह खरीदने के बाद हमने सबसे पहले वहां स्थित ईसा खान के मकबरे का रुख किया। ईसा खान शेरशाह सूरी का दरबारी था। उसके जीवनकाल में ही इस मकबरे का निर्माण हो गया था।

मुख्य द्वार से प्रवेश ...
 यह मक़बरा अष्टकोणीय आकार में बना है और इसके चारों ओर चारबाग़ शैली के बाग़ हैं जिनके चारों ओर अष्टकोणीय दीवार है। हकीकत में यह मक़बरा हुमायूँ के मकबरे से पुराना है और इसलिए इसकी हालत थोड़ी खस्ता है जिसकी वजह से उन दिनों में यहाँ पर इसके संरक्षण का कार्य चल रहा था। 

 हमारी यह यात्रा इसलिए यादगार रही क्योंकि मनीष इतने सुबह उठकर सिर्फ इसलिए गया था ताकि वह अपने कैमरे से इन इमारतों के कुछ बेहतरीन शॉट्स ले सके लेकिन......

 ईसा खान के मकबरे में हमारा स्वागत कुछ लड़कों के एक समूह ने किया। वे संभवतः कॉलेज जाने वाले नए छात्र लग रहे थे। उनके हाथ में एक डीएसएलआर कैमरा था और संभवतः वह भी नया ही था। अजीब बात जो हमें लगी वो यह कि वे लोग इस कैमरे से भी सेल्फ़ी ले रहे थे। 

 खैर इस बात से मनीष को कोई परेशानी नहीं थी क्योंकि वे भी पर्यटक थे , घूमने आएं थे तो फोटो तो लेंगे ही, मनीष की परेशानी का सबब दूसरा था।

बेचारा मनीष, कोशिश जारी है.... 
 ईसा खान के मकबरे के भीतर जब हमने प्रवेश किया तो सामने तीन मुख्य कब्रें देखीं। वहां हल्का अँधेरा था तो मनीष के फोटो लाइट कम होने की वजह से साफ़ नहीं आये।  इससे उसे थोड़ी खीझ हुई कि काश उसके पास भी उन लड़कों जैसा कैमरा होता, खैर ये एक आम मानवीय प्रतिक्रिया थी लेकिन उसे मलाल इस बात का था कि तीन कब्रों पर रोशनदानों से पड़ने वाले रोशनी के मनोरम दृश्य को वह अपने कैमरे में कैद नहीं कर पा रहा  था। 

 इसके बाद जब हम ईसा खान के मकबरे के मुख्य गुम्बद के बाहर के अष्टकोणीय गलियारे में आये तो वहां देखा कि बहुत सारे स्तम्भों के बीच में इस इमारत के बनने के दौरान छत पर बनाये गए बेल-बूटों, कलाकारी को नया रूप देकर संवारा जा रहा है, यहाँ रोशनी ठीक थी तो मनीष ने फोटो ले लिए कि तभी पीछे काफी शोरगुल करता हुआ उन लड़कों का समूह आ गया तो मैंने और मनीष ने उसी अहाते में स्थित मस्जिद की ओर  रुख किया।

सुन्दर, अप्रतिम... 
 मस्जिद की ओर पहुंचकर हमने देखा कि गुम्बदों के ऊपर टाइल्स का काम फिर से दुरुस्त किया जा रहा है। तभी वहां एक मोर ने अपने पंख फैलाये जिस कारण से सबका ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हो गया। उन लड़कों का समूह भी उसे देखने के लिए मस्जिद की ओर चला आया। अब  मनीष के चेहरे पर थोड़ी चिंता व्यक्त हो रही थी क्योंकि उसे लग रहा था कि वह अब ठीक तरह से ईसा खान के मकबरे की मुख्य इमारत का फोटो नहीं ले पायेगा।

 मस्जिद की ओर  से मक़बरा काफी शानदार दिखाई दे रहा था। सुबह की सूरज की लाल किरणें उसके मुख्य गुम्बद की सफेदी को आलोकित कर रहीं थीं। अष्टकोण के प्रत्येक कोण पर गुम्बद के नीचे बनी एक छतरी और उसके नीचे बने तीन मेहराबों को जब आप मस्जिद की ओर से देखते हैं तो तीन कोणों को मिलाकर एक अभूतपूर्व दृश्य बनता है जिसके बीचों-बीच एक रास्ता आस-पास के बाग़ को स्पष्ट रूप से दो भागों में बाँट देता है। ज्यामिति का छात्र अगर कोई हो तो इतनी कुशलता को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाये।

 खैर मनीष को इस चिंता से मैंने दूर किया और उसे सुझाव दिया कि  इमारत की अष्टकोणीय बाहरी दीवार पर हम तब तक टहल लेते हैं जब तक उन लड़कों का समूह डीएसएलआर से सेल्फ़ी लेकर चला नहीं जाता। यह दीवार असल में इतनी चौड़ी है कि पांच लोग एक साथ दौड़ प्रतियोगिता कर सकें। हम दीवार पर टहलने लगे। पूरा चक्कर काटने के बाद हम मुख्य द्वार तक पहुंचे और वहां हम सीढ़ियों से उतरने को जैसे ही आगे बढे मेरे कदम ठिठक गए। सामने द्वार के ऊपर जाने की सीढ़ियां तो थी लेकिन वहां से नीचे बाग़ तक जाने की नहीं और हमारा ध्यान वहां नहीं गया था तो बस हम गिरते-गिरते बचे।

उन्हीं बेहतरीन शॉट्स में से एक.....
 दीवार पर टहलने के दौरान दूर से मनीष ने गुम्बद और मस्जिद के काफी बेहतरीन शॉट्स लिए और फिर अंततः हम मस्जिद वापस आये और वहां से तीन कोण वाला अपना पसंदीदा फोटो लिया। मनीष ने मस्जिद के भी अच्छे शॉट लिए जिसमें से एक में उसने मुझसे टाइटैनिक का चिरस्थायी पोज बनाने को कहा।
 उस समय तक उन लड़कों का समूह इस परिसर के दूसरे इलाके की ओर जा चुका था तो वहां हमने बिलकुल शांत वातावरण में कुछ देर उस सुबह की धूप से रोशन होते मकबरे को निहारा और सोचा कि उन कब्रों में सो रहे लोगों को अब ये रोशनी भी नहीं जगा सकती। सिर्फ इस धूप की गर्मी ही है जो उन्हें अब तक सही सलामत रखे हुए है और मौसम की मार से उनके इस शयनकक्ष को बचाये हुए है।
अंततः..... 

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

जनाब बस दिमाग खोलकर चलें...!




 वैसे आमतौर पर मैं राजनीति से परहेज ही करता हूँ क्योंकि आजकल राजनीति के बारे में लिखने का मतलब बुद्धिजीवियों का नेताओं के बयानों पर टीका टिप्पणी करने और समर्थकों का उनके लिए छाती पीटने भर से रह गया है। रही-सही कसर सोशल मीडिया पूरी कर देता है क्योंकि अब संवाद एक तरफ़ा हो चला है।

 हम जब मीडिया की पढाई कर रहे थे तब एक थ्योरी थी "बुलेट थ्योरी" जिसका मोटा सा मतलब यह था कि खबरें बन्दूक से निकली गोली की तरह होती हैं जिसका कोई फीडबैक नहीं आता और आज के सन्दर्भ में यह बात नेताओं की टिप्पणियों पर लागू होती है। बस वो ट्वीट कर देते हैं और उसके बाद सब अपने हिसाब से लड़ते रहो। 

 खैर यह बात तो प्रसंगवश लिख दी लेकिन बात तो मैं जेएनयू के मुद्दे पर करना चाह रहा था।

 मैं अभी तक इस बात को समझ नहीं पा रहा हूँ कि यदि जेएनयू में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे भी तो उसके वीडियो फुटेज ( Is there any conspiracy? ) मीडिया तक कैसे पहुंचे ? इसका मतलब यह हुआ कि कोई वास्तव में विवाद भड़काना चाहता था। 

 दूसरी बात यह कि सरकार को इस मामले क्या वाकई में दखल देना चाहिए था ? यदि जेएनयू प्रशासन खुद इस बात पर एक्शन लेता तो क्या वह ज्यादा तार्किक नहीं होता ?

 तीसरी बात कि इस मामले में अज्ञात लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गयी तो गिरफ्तारी जेएनयू छात्र संगठन के अध्यक्ष ( Kanhaiya's Clearance. ) की कैसे और किस आधार पर हुई ? क्या उसने इस कृत्य समर्थन किया था?

चौथी बात कि कुछ लोगों द्वारा अंजाम दी गयी इस घटना के लिए पूरा जेएनयू कैसे जिम्मेदार हो गया ?

 यह वो कुछ बातें हैं जिन पर सोशल मीडिया दोनों पक्षों के लोग बहस कर रहे हैं। सब अपने समर्थन में वीडियो को दिखा रहे हैं। तो अनुरोध बस इतना है कि किसी निर्णय पर पहुँचने से पहले दिमाग को विभिन्न पहलुओं से सोचने के लिए थोड़ा खोल लें।

 मुझे और जो बात इस सब प्रकरण के पीछे नजर आई वो यह कि आने वाले साल में पश्चिम बंगाल और केरल के चुनाव होने हैं। दोनों ही राज्यों में लेफ्ट पार्टियों का अच्छा दबदबा है और जेएनयू का लेफ्ट से अच्छा ताल्लुक है। ऐसे में जेएनयू से जुड़ा कोई भी विवाद दोनों राज्यों में कार्यकर्ताओं और समर्थकों को इकठ्ठा करने में काम आएगा। लेकिन शायद सरकार यह भूल रही है कि इन दोनों राज्यों में ही लेफ्ट पार्टियों का आधार काफी मजबूत है तो इससे वो आपके कार्यकर्ताओं से ज्यादा लामबंद हो जायेंगे। कंही यह विवाद पटखनी जैसा न हो जाये जैसा "गोपालक" विवाद बिहार में उल्टा पड़ा था।

 एक और बात जो यह है कि कांग्रेस ने लेफ्ट पार्टियों से गठबंधन कर लिया है ऐसी ख़बरें चर्चाओं में हैं। तो कंही भाजपा को यह डर तो नहीं सताने लगा है कि कांग्रेस महज दो साल में ही फिर से मजबूत होने लगी है। जैसे बिहार में उसकी स्थिति सुधरी है अगर वह और जगह भी बेहतर हुई तो कांग्रेस मुक्त भारत का सपना कैसे पूरा होगा। 

 एक और बात जो मुझे इस प्रकरण में समझ में आ रही है वो यह है कि जेएनयू के विवाद से अफज़ल गुरु के विवाद को जोड़ देना कंही कश्मीर के संकट से उबरने के लिए अपने समर्थकों के बहाने जन समर्थन जुटाने का प्रयास तो नहीं है क्योंकि मुफ़्ती मोहम्मद सईद के निधन के इतने दिन बाद भी वहां सरकार नहीं बनी है।

 इसके अलावा भाजपा के लिए सबसे अहम चुनाव उत्तर प्रदेश के हैं और उसमें एक साल करीब का वक़्त रह गया है। वहां बसपा फिर से उभर रही है और हाल के पंचायत चुनावों में उसके समर्थन वाले प्रत्याशी जीते हैं। ऐसे में जेएनयू के माध्यम से दलित-पिछड़े वोटों ध्रुवों में बांटने का काम तो नहीं किया जा रहा ताकि मायावती के उभर को रोका जा सके, उन्हें सीबीआई से उतना डरा भी तो नहीं सकते जितना कि मुलायम सिंह यादव को और फिर सपा को तो भाजपा की राजनीति से हमेशा फायदा ही मिलता है। 

 तो बहुत से सवाल हैं और बहुत सी संभावनाएं बस आप अपना दिमाग खोलकर रखें जनाब। बाकि ये भारत है, विविधताओं से भरा, इसे किसी एक विचारधारा में किसी का भी बांधपाना नामुमकिन ही है चाहें तो पूरा इतिहास खंगाल के देख लो।