रविवार, 29 सितंबर 2013

खाऊ देश के लोगों के खाने का जुगाड़

 हम लोग खाने वाले लोग हैं और इसी वजह से ही हमारी सरकार, जनता सब दिन-रात खाने की ही सोचते रहते हैं।कई बार हम से कुछ लोग इतना खा लेते हैं कि जरुरतमंदों तक खाना नहीं पहुँच पाता और इससे फिर सरकार को उनके खाने की भी चिंता होती है। अब देखो न सरकार ने हमारे देश की सत्तर प्रतिशत जनता के खाने का जुगाड़ किया है। अध्यादेश तो सरकार ले आई लेकिन वास्तव में ये किसके खाने का प्रबंध है ये जानना बाकी है।
कृष्ण-सुदामा
 श्रीकृष्ण वाले इस प्रसंग की विभिन्न व्याख्याएं हो सकती हैं लेकिन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह परंपरा हमारे लिए और सरकार के लिए एक विकराल समस्या का रूप लेती जा रही है और आने वाले समय में यह और भी घातक हो जाएगी। खैर अब बात करते हैं की इस अध्यादेश से किसके खाने का प्रबंध होगा ? खाऊ देश के लोगों के खाने का जुगाड़ है यह बिल। सरकार को कम से कम चिंता तो है कि गरीबों के पेट में खाना पहुंचे लेकिन ये तो सभी जानते हैं कि खाना जनता के पास थोड़े ही पहुंचेगा बल्कि हम आदत से बेइमान लोगों के बीच से गए अधिकारिओं, नेताओं और पता नहीं किन-किन दलालों और राशन की दुकानों वालों के पास पहुंचेगा। तभी तो सरकार ने सोचा कि क्यूँ न गरीबों को इसके पैसे ही दे दिए जाएँ और वो खुद ही बाज़ार से सामान खरीद के खा ले, लेकिन हम ठहरे आदत से मजबूर हैं जिस काम के लिए बोल जाये उसे कैसे कर सकते हैं हम उसे छोड़ के सब करते हैं तो फिर खाने के पैसे हम भारतीय दारु और जुए में नहीं खर्च करेंगे इसकी गारंटी कैसे दे सकते हैं ?
साभार-सतीश जी

 गरीबों को जो काम हमने दिया वो कुछ समय बाद उन्हें बेकार और बेगार दोनों का ही मरीज बना देगा। हमने उन्हें कुछ सिखाने का काम थोड़े ही किया और हमने इस व्यवस्था को कायम कर उनके अन्दर की प्रतियोगिता की भावना को भी ख़त्म किया और अब खाना देकर हम उन्हें नाकारा बनाने का भी जुगाड़ करने जा रहे हैं और कुछ लोगों के खाऊ होने की आदत को हम इतना बढ़ावा दिए जा रहे हैं कि आने वाले दिनों में उनको होने वाले मोटापे और उससे होने वाली बीमारियों के इलाज़ का जुगाड़ करने की भी जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी।

 क्या यह अच्छा नहीं होता कि हम उन्हें काम देते और नए काम करने के काबिल बनाते और उन्हें इज्जत से रहना सिखाते ताकि भविष्य में किसी भी स्थिति में वो जी सकें। क्यूंकि ये खाना जो उनके लिए जुटाया जा रहा है इस व्यवस्था में तो उन्हें नसीब होने से रहा। 
 लेकिन अब क्या करें हमें अपने कुछ बड़े लोगों के खाने का जुगाड़ तो करना ही था नहीं तो वो बेचारे और भुखमरी से मर जाते। अध्यादेश तो सब के खाने के लिए है लेकिन देखते हैं कि कौन-कौन सी मछली को दाना नसीब होता है क्यूंकि वो कहावत है न कि दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम।

 हम लोग वैसे भी गरीबों को काम तो देते नहीं हाँ खाना जरुर दे देते हैं। वैसे इस बात के लिए मैं पूरी तरह श्रीकृष्ण को दोषी मानता हूँ, आखिर जब सुदामा उनके पास कुछ अपेक्षा लेकर आया था तो मित्र के नाते उन्होंने उसे काम क्यों नहीं दिया बल्कि मुफ्त में सब सुख-सुविधाएँ उसे देकर सम्पूर्ण भारत के आने वाली पीढ़ियों के लिए गलत परंपरा का प्रतिपादन किया। अगर वो उसे काम देते तो कम से वो अपने और अपने परिवार के लिए कुछ सार्थक कार्य करते और नवीन संभावनाओं का निर्माण होता किन्तु ऐसा नहीं हुआ और हमारे बीज में ही भीख मांगना, खाना देना जैसी परंपरा का विकास हुआ जिस वजह से हमने अपने लोगों को एक लम्बे समय में कामचोर बनाने को प्रशिक्षित किया।

 और बेचारे हमारे अधिकारी, राशन वाले, नेता और दलाल सब इस व्यवस्था के धनात्मक शिकार हैं तभी तो वो इतना माल गटक के भी डकार नहीं लेते। इसमें तो उनके नाम गिनीज बुक रिकॉर्ड है "द वर्ल्ड मोस्ट कलेक्टिव ईटिंग रिकॉर्ड"। खाऊ लोगों के पास इसका तो हक बनता ही है और वैसे भी हमारे खाने की आदत से तो अमेरिका का राष्ट्रपति भी परेशान है।

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

ये रखेंगे भारत की इज्जत !

जकल फेसबुक युवाओं का अड्डा बना हुआ है और भारत के सारे राष्ट्रवादियों और देशभक्तों ने इसके माध्यम से देस के युवाओं को देस के इतिहास से रूबरू कराने का बीड़ा उठाया है और उसी कड़ी का एक हिस्सा नीचे साझा किया है जो आजकल फेसबुक पर काफी प्रचलित है, लेकिन यह सत्य कितना है ? खैर इस बात को यहीं छोड़ते हैं आप जरा इस पर नजर दौड़ाएं फिर कुछ और जानेंगे इन महान राजा जी के बारे में --


"इंगलैण्ड की राजधानी लंदन में यात्रा के दौरान एक शाम महाराजा जयसिंह सादे कपड़ों में बॉन्ड स्ट्रीट में घूमने के लिए निकले और वहां उन्होने रोल्स रॉयस कम्पनी का भव्य शो रूम देखा और मोटर कार का भाव जानने के लिए अंदर चले गए। शॉ रूम के अंग्रेज मैनेजर ने उन्हें “कंगाल भारत” का सामान्य नागरिक समझ कर वापस भेज दिया। शोरूम के सेल्समैन ने भी उन्हें बहुत अपमानित किया, बस उन्हें “गेट आऊट” कहने के अलावा अपमान करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। अपमानित महाराजा जयसिंह वापस होटल पर आए और रोल्स रॉयस के उसी शोरूम पर फोन लगवाया और संदेशा कहलवाया कि अलवर के महाराजा कुछ मोटर कार खरीदने चाहते हैं।


कुछ देर बाद जब महाराजा रजवाड़ी पोशाक में और अपने पूरे दबदबे के साथ शोरूम पर पहुंचे तब तक शोरूम में उनके स्वागत में “रेड कार्पेट” बिछ चुका था। वही अंग्रेज मैनेजर और सेल्समेन्स उनके सामने नतमस्तक खड़े थे। महाराजा ने उस समय शोरूम में पड़ी सभी छ: कारों को खरीदकर, कारों की कीमत के साथ उन्हें भारत पहुँचाने के खर्च का भुगतान कर दिया। 



ये हैं महान विभूति 


भारत पहुँच कर महाराजा जयसिंह ने सभी छ: कारों को अलवर नगरपालिका को दे दी और आदेश दिया कि हर कार का उपयोग (उस समय के दौरान 8320 वर्ग कि.मी) अलवर राज्य में कचरा उठाने के लिए किया जाए।


विश्‍व की अव्वल नंबर मानी जाने वाली सुपर क्लास रोल्स रॉयस कार नगरपालिका के लिए कचरागाड़ी के रूप में उपयोग लिए जाने के समाचार पूरी दुनिया में फैल गया और रोल्स रॉयस की इज्जत तार-तार हुई। युरोप-अमरीका में कोई अमीर व्यक्‍ति अगर ये कहता “मेरे पास रोल्स रॉयस कार” है तो सामने वाला पूछता “कौनसी?” वही जो भारत में कचरा उठाने के काम आती है! वही?


बदनामी के कारण और कारों की बिक्री में एकदम कमी आने से रोल्स रॉयस कम्पनी के मालिकों को बहुत नुकसान होने लगा। महाराज जयसिंह को उन्होने क्षमा मांगते हुए टेलिग्राम भेजे और अनुरोध किया कि रोल्स रॉयस कारों से कचरा उठवाना बन्द करवावें। माफी पत्र लिखने के साथ ही छ: और मोटर कार बिना मूल्य देने के लिए भी तैयार हो गए।


महाराजा जयसिंह जी को जब पक्‍का विश्‍वास हो गया कि अंग्रेजों को वाजिब बोधपाठ मिल गया है तो महाराजा ने उन कारों से कचरा उठवाना बन्द करवाया !"

तो ये हैं अलवर के महाराजा जो अपने देस की इज्जत रखने वाले हैं लेकिन इतिहास के जानकार जो हैं वो जानते होंगे कि यह मशहूर किस्सा भरतपुर के महाराजा से जुड़ा किस्सा है और ये कोई देसभक्ति के लिया निर्णय नहीं था बल्कि अपने दंभ और अहम् की संतुष्टि के लिया गया फैसला था। शायद ये बहुत ही कम लोगों को मालूम होगा अलवर के महाराजा जयसिंह तो अपने राज्य में अपने निर्दयी स्वभाव के लिए जाने जाते थे और अपनी प्रजा को प्रताड़ित करने के लिए बदनाम थे। इतना ही नहीं वो  जनता से जुटाए राजस्व का प्रयोग अपने संदेहास्पद और अय्याशी वाले निजी खर्चों पर किया करते थे। इसीलिए अंग्रजों ने इन आरोपों की जांच के लिए एक परिषद् का गठन किया जिसने इन्हें जनता को निर्दयता शासित करने और राजस्व का गलत प्रयोग करने का दोषी पाया और इन्हें देस निकाला दे दिया और फ्रांस भेज दिया, वंही देस निकाला के दौरान पेरिस में इनकी मौत हुई और सत्ता इनके बाद तेज सिंह प्रभाकर के हाथ आई जिनके कुछ किस्से दिलचस्प हैं।

सोचने वाली बात- ये बात सभी को पता है कि उस समय राजा अपनी झूठी शान और ठसक के लिए जाने जाते थे और जिस घटना का जिक्र यहाँ है वह कंही से भी यह साबित नहीं करती कि उनका यह काम देस की शान में किया गया था बल्कि यह बताता है कि वो कितने दंभी और सनकी थे जिसके वजह से उन्होंने ये काम किया। वैसे ये भारत में ही मुमकिन है कि हम अपने युवाओं को ही अपने इतिहास की गलत परिभाषा देते हैं सोचना तो हमे ही होगा की हम उन्हें देना क्या चाहते हैं…क्या सिर्फ कुछ बरगलाता ज्ञान और कच्ची नींव या बनते मजबूत भारत की बागडोर। किसी भी विषय के दोनों पक्षों को जानना जरुरी तो होता ही है।

शनिवार, 7 सितंबर 2013

कुछ अनछुए से…




 क्सर हम दुनिया जहान को घूमने की चाहत रखते हैं और शुरुआत हम अपने घर से कुछ दूर के जगहों पर बहुधा आने-जाने से करते हैं, लेकिन कई बार उस स्थान पर बहुत बार जाने के बावजूद कुछ अनछुए से किस्से रह जाते हैं जो या तो वक्त की रेत से दब जाते हैं या ताजी हरियाली से लड़ते हुए उनकी ओट में छिप जाते हैं। इस बार मेरे गृहनगर की यात्रा इन्ही मायनों में खास रही, मेरे घर से करीब 20 किमी दूर पर एक शानदार 15वीं-16वीं सदी का ऐतिहासिक/धार्मिक पर्यटन स्थल ओरछा है।

 अपने 23 वर्ष के जीवन में दसियों बार मैंने यहाँ भ्रमण किया होगा लेकिन कुछ छूटा रह गया था। यहाँ राम को राजा की तरह से पूजा जाता है। यह मुग़ल साम्राज्य के समय में समृद्ध बुंदेलखंड का भाग था और मुग़लों का एक महत्त्वपूर्ण साथी भी, लेकिन यहाँ के राजा द्वारा बनवाया गया उसका महल और जहाँगीर के सम्मान में बना जहाँगीर महल एक नजीर की तरह है और इसके परकोटे के बाहर हरियाली ने अपने आवरण में बहुत कुछ छिपा कर रखा है और इस बार की यात्रा उन्हीं कुछ छिपे स्थानों से पर्दा उठाने के लिए याद रहेगी। 

यहाँ कुछ तस्वीरें साझा कर रहा हूँ.…