सोमवार, 27 नवंबर 2017

कुछ यूँ बदल गयी हमारी खिलौनों की दुनिया

कनॉट प्लेस के डी ब्लॉक में राम चन्दर एंड संस का बोर्ड
 म सभी ने अपने बचपन में खिlलौनों के साथ वक़्त बिताया जरूर होगा। लेकिन इस बार मैंने वक़्त बिताया उस शख्स के साथ जो अपने जीवन के 62-64 साल इन खिलौनों के बीच बिता चुका है। पाँच पीढ़ियों से चल रही अपनी खिलौनों की दुकान में न जाने उसने कितने बच्चों के अरमान सजते देखें होंगे और कितनों के टूटते भी।

 हालांकि मैंने ये स्टोरी अपने काम के चलते की थी लेकिन ऐसा बहुत कुछ रह गया जो वहां कह नहीं पाया। दिल्ली के दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस में अंग्रेजों के ज़माने की कई दुकानें हैं। इन्हीं में एक नाम ओडियन सिनेमा के बगल वाली राम चन्दर एंड संस का है।

 इसके बारे में कहा जाता है कि यह भारत की सबसे पुरानी खिलौने की दुकान है। लगता भी ऐसा ही है क्योंकि 1890 में शुरू हुई इस दुकान के अंदर आप जैसे ही दाखिल होंगे आपको लगेगा ही नहीं यह कनॉट प्लेस की ही कोई दुकान है।
अपनी उसी बेतरतीब टेबल के साथ वाली कुर्सी पर सतीश सुंदरा
 कनॉट प्लेस में जहाँ कांच के शोकेसों वाली दुकानें तमाम तरह के दीप आभूषण धारण किये मिलती हैं। इस दुकान को देखकर पहली नजर में आपको किसी गोदाम में जाने की अनुभूति होगी। सब सामान इधर-उधर बेतरतीब सा पड़ा है। इन्हीं के बीच में दाहिने तरफ एक दराजों वाली टेबल है जिस पर एक कम्प्यूटर है और ढेर सारा सामान भी साथ ही बगल की कुर्सी पर कोई 70-75 साल बुजर्ग बैठा है।

यह बुजुर्ग व्यक्ति सतीश सुंदरा हैं जो इस दुकान से जुड़े परिवार की चौथी पीढ़ी से हैं। करीब आठ साल की उम्र में दुकान पर बैठना शुरू कर चुके सतीश अभी अपने बेटा-बहू के साथ मिलकर इस दुकान को चलाते हैं।

 दुकान पर बैठने की अपनी शुरुआत के बारे में सतीश बड़े रोमांच के साथ बताते हैं,
''मेरे परिवार में मारवाड़ी माहौल था। इसलिए मैं सात—आठ साल की उम्र से ही दुकान पर बैठने लगा। तब से अब तक मैंने खिलौनों की इस दुनिया को बड़े नजदीक से बदलते देखा है।"
 बकौल सतीश 1940 के दशक में भारत में ज्यादातर खिलौने ब्रिटेन-अमेरिका से आते थे। तब खिलौनों में रेलगाड़ियां अहम होती थीं। इसमें भी सबसे ज्यादा जर्मनी की गाड़ियों को पसंद किया जाता था। मुझे खुद एक इलैक्ट्रानिक रेलगाड़ी बहुत पसंद थी। इसके अलावा ब्लॉक आपस में जोड़ने वाले खिलौनों का ही विकल्प हमारे पास होता था।

 हमारे परिवार की कुल पांच दुकानें थी। पहली दुकान अम्बाला में खुली और 1935 में यह यहां कनॉट प्लेस में आ गयी। पिताजी और उनके भाइयों के बीच बाद में ये दुकानें बंट गयी और फिर मेरे और भाई के बीच भी बंटवारा हुआ। सबने अपनी दुकानें बेच दी। शिमला और कसौली में भी हमारी दुकान थी लेकिन अब बस यही एक बची है।

  बकौल सतीश खिलौनों की दुनिया में अमेरिका और ब्रिटेन के दबदबे को चुनौती जापान ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद देनी शुरू की। 1950 के दशक में जापान ने कबाड के टिन से खिलौने बनाने शुरु किए। उसने अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े खिलौने बनाने शुरू किये। हम खुद 1969 तक इनका भारत में बेरोकटोक आयात करते थे। लोग इसे बहुत पसंद करते थे। बाद में 1970 में सरकार ने कई तरह के आयात पर रोक लगा दी और यह रोक 1980 के दशक तक जारी रही।

 वर्ष 1980 के दशक में आयात तो खुल गया लेकिन तब तक खिलौने जापान से ताइवान चले गए। तभी कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक खिलौने आये। बाद में 2000 के बाद से चीन ने इसमें अपनी साख बनायी है। लेकिन एक बात जो यूरोपीय खिलौनों में थी तो वो थी ''दादा खरीदे, पोता बरते'' लेकिन अब यह बात कहीं नहीं बची।

 बीते के दिनों को याद करते हुए सतीश कहते हैं कि तब का दौर और था। हमारे पास खिलौनों के साथ खेलने का वक़्त होता था। मेले-तमाशे होते थे, आँगन और गलियों में भी बच्चे खेला करते थे। अब तो पार्कों में भी जाने पर बच्चे खेलते नहीं दिखते। मेरे भी जानकारी में कई बच्चे हैं जिन्हें मोबाइल वगैरह पर खेलते हुए देखकर बड़ा कष्ट होता है।

 बड़े कौतुहल के साथ सतीश बताते हैं कि हर खिलौना एक शिक्षा देता है। किसी भी बच्चे के शारीरिक, मानसिक और तार्किक विकास में खिलौनों की भूमिका होती है। बचपन में मेलों में मैंने एक खेल देखा है जिसमें एक इलैक्ट्रॉनिक तार से एक छल्ले को पार निकालना होता था। सोचिए यह बच्चों को कितना ज्यादा एकाग्र बनाता था। यह बात बताते हुए उनकी आँखों में एक अजब तरह की चमक उभर आती है।

 आजकल ​िखलौनों की जगह फिल्मों से जुडी मर्चेंडाइज ने ले ली है। इनके आने से एक तो बच्चों में थोड़ी हिंसक प्रवृत्ति बढ़ने लगी और हमारे खुद के चरित्रों और नायकों को हम अपने बच्चों के जीवन में वह स्थान नहीं दिला पाए जो सुपरमैन वगैरह को मिला।

 एक और बात जो मुझे कचोटती है, वो यह कि आजकल माँ-बाप बच्चे को खिलौना तो दिला देते हैं। लेकिन उसके साथ समय नहीं बिताते। ना ही उस खिलौने को लेकर बच्चे के साथ खेलते हैं। देखा जाए तो हमारे बच्चे आजकल बहुत अकेले हो गए हैं।

सतीश जी की बहू दीप्ति दिव्या
 हमारी दुकान का विशेष नियम है कि हम बच्चे को वही खिलौना देते हैं जो उसकी उम्र के हिसाब से सही हो।  सिर्फ बेचने के लिए खिलौना हम नहीं बेचते। हम चाहते हैं कि बच्चे अपने खिलौने का पूरा मज़ा उठायें ताकि उसका बचपन भी यादों से भरा हो।