गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

संवेदनाओं का प्रचार


भा रत में घटने वाली घटनाओं का भी अपना एक मौजूं मिजाज है पता नहीं किस बात से बिगड़ जाएँ या न जाने किस बात से उत्सव का माहौल रच डालें। अब हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त को सजा क्या सुनाई हंगामा ही बरपा गया। बात-बेबात एक बहस छिड़ गई कि इस देश में कानून के कितने दर्जे हैं ? क्या ये भी  बाज़ार की तरह उच्च, मध्यम और निम्न दर्जे के लिए अलग-अलग तरह से व्यव्हार करता है। हम तो बचपन से यही पढ़ते आये कि कानून का दर्जा सर्वोच्च है।

खैर बात अगर यंही ख़त्म हो जाती तब भी ठीक था इस व्यवधान ने हमें यह भी आभास कराया कि हमारे यहाँ मानवतावादियों की एक पूरी की पूरी पलटन खड़ी है। ऐसी ही फ़ौज थोड़े दिन पहले अफजल गुरु को फांसी मिलने के दौरान भी मोर्चाबंद दी थी। मैं हैरान हूँ जानकार कि  इतने मानवीय वकील होने के बाद भी देश में गोधरा, पंजाब, कश्मीर और भोपाल के पीड़ितों को न्याय कैसे नहीं मिल सका। जरुर दोष उन पीड़ितों का ही है जो कि इन लोगों तक पहुँच ही नहीं सके जो उन्हें न्याय दिला सके।

इस घटना ने एक और बढ़िया काम किया भारत को एक नया संवेदनाओं का उत्सव प्रदान किया। संजय को काटजू से लेकर बालन तक सब की संवेदनाएं प्राप्त हुई। वो भले ही कहते रहे "मामू इस बार दिल जेल जाना मांगता है।" पर लोग हैं कि उन्हें "माफ़ी की झप्पी" ही देते रहे।

दरअसल यह सारी कवायद संजय के उस प्रचार कद के कारण हुई जो उन्होंने खुद बनाया और थोडा बहुत विरासत में मिला। पिता सुनील एक बड़े अभिनेता और राजनेता रहे, बहन प्रिया एक सफल कॉंग्रेसी हैं और संजय खुद समाजवादी बनने को आतुर। तो संवेदनाओं का भंडार तो घर पहुंचना ही था। अब अमर और जयाप्रदा को ही लें वो तो समाजवादियों से जले-भुने बैठे हैं तो राख के ढेर को झाड़ने का इससे अच्छा अवसर कहाँ मिलता। वैसे मैं उन्हें इस संवेदना उत्सव को मनाने वालो में अव्वल मानता हूँ, बेचारे काटजू कहते ही रहे कि वो राज्यपाल के पास जायेंगे लेकिन ये दोनों तो पहुँच भी गए अर्जी लेकर बिना यह जाने कि राज्यपाल  माफ़ी देने के काबिल ही नहीं हैं।

वकील अपनी संवेदनाएं और तर्क से अपनी वकालत चमकाने का ही जुगाड़ करते रहे और फ़िल्मी कलाकारों का ऐसा करना होड़ की भागदौड़ करना था। कुछ तो ऐसे भी नज़र आये जिन्हें देख जनता भी सोच में पड़ गयी कि बाप रे ये लोग अभी भी मायानगरी में टिके हैं। वैसे इस चिल्लम बाज़ार को देख कर एक किस्सा याद आ गया।

"हमारे क्षेत्र में शर्मा जी वकील थे जिन्होंने जनता की सेवा करने के लिए पार्षद से लेकर सांसद तक का चुनाव लड़ा। भले ही वो एक भी चुनाव आज तक नहीं जीते लेकिन इन चुनावों के बहाने प्रचार हुआ और उनकी ख्याति दूर-दूर तक के गाँव में हो गई और उनकी वकालत चमक गई।"

वर्तमान प्रचार का दास हो चुका है और संजय बाबा फिलहाल संवेदनाओं के। इस दासता का बोझ इतना बढ़ गया की उन्हें रो-रो कर दुहाई देनी पड़ी कि बंद करो माफ़ी की झप्पी देना और जाने दो उन्हें जेल। क्यूंकि शायद वे भी बखूबी जानते हैं कि ये उनके प्रति लोगों की सहानुभूति नहीं बल्कि लोगों की खुद की "संवेदनाओं का प्रचार" है।