सोमवार, 11 जनवरी 2016

बनारसीपन की पहचान है 'मोहल्ला अस्सी'

  हो सकता है कि इसे लिखने में मैंने काफी देर कर दी हो लेकिन मैं चाहता था कि  पहले किताब को पढ़ लिया जाए उसके बाद ही इस फिल्म को देखा जाए। ‘मोहल्ला अस्सी’, जी हाँ मैं इसी फिल्म की बात कर रहा हूँ।

 डाॅ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसी नाम से फिल्म बनाई है, जो बनारस की पृष्ठभूमि पर आधारित काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित है। अगर इस फिल्म का आप पूरा रस लेना चाहते हैं तो पहली सलाह है कि ‘काशी का अस्सी’ जरूर पढ़ लें। हां अगर नहीं भी पढ़ेंगे तो भी इस फिल्म को समझने में कोई परेशानी नहीं होगी और फिल्म का देसीपन आपको लुभाएगा, लेकिन अगर उपन्यास पढ़ लिया तो रस का आनंद आएगा।


पहले परिचय थोड़ा ‘काशी का अस्सी’ से, इसके लेखक वही काशीनाथ सिंह हैं। हम यहां बात उनके उपन्यास या यूं कहें कि समान पात्रों को लेकर पिरोई गई पांच कहानियों की कर रहे हैं। जो लोग बनारस में रहे हैं या जिन्होंने उसे नजदीक से देखा है, तो वह इस किताब से अच्छी तरह परिचित होंगे और इसकी बातें भी उनके लिए बिल्कुल सामान्य होंगी। लेकिन जो लोग बनारस नहीं गए या जिन्हें वहां का सउर नहीं, उनके लिए इस किताब का मतलब है कि वह इसे पढ़कर भारत की अपनी देशज परंपराओं से कुछ हद तक वाकिफ हो सकते हैं, खासकर अंतिम अध्याय में कहानी सुनाती मंडलियां कई गूढ़ बातों को गानों की रवां में ही कह जाती हैं।

 सजीव से पात्र और सजीव सा उनका आकर्षण यही इस किताब की खासियत है और यह बात मैं अभिभूत होकर नहीं कह रहा हूं, लेकिन जो लोग छोटे शहरों से संपर्क रखते हैं उन्हें यह बात अच्छी तरह मालूम होगी कि हर शहर की अपनी एक संस्कृति और भाषा होती है और इस किताब में बनारस के सिर्फ एक मोहल्ले की कहानी है लेकिन वह आचरण में पूरे बनारस की तस्वीर पेश करती है। बाकी आप इस किताब को पढ़कर खुद ही पता लगाएं सारा कुछ मैं ही लिखूंगा क्या ?

 अब बात करते हैं ‘मोहल्ला अस्सी’ की, कहते हैं कि फिल्म की कहानी का कथानक कुछ भी और किसी भी दौर का हो, लेकिन वह जिस देशकाल में बनी है वही उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण है। डाॅ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी को हम गंभीर विषय उठाने के लिए जानते हैं फिर वह चाहे धारावाहिक के रूप में ‘चाणक्य’ हो या फिल्म के रूप में ‘पिंजर’ और ‘जेड प्लस’, सभी के विषय प्रभावी और समाज को लगभग आईना दिखाने वाले।

 ‘मोहल्ला अस्सी’ आधिकारिक रूप से पर्दे पर प्रकट नहीं हुई इसे आपको गैर कानूनी तरीके से इंटरनेट की सेवा का प्रयोग करते हुए ही देखना होगा। अब मौजूं सवाल यह है कि यह रिलीज क्यों नहीं हुई तो इसकी एक वजह यह है कि इसमें गालियों के इस्तेमाल में कोई पशोपेश नहीं रखा गया है, रखा भी नहीं जा सकता था क्योंकि ‘काशी का अस्सी’ भी वैसा ही है। अब जिस देश में सेंसर बोर्ड फिल्मों में कुछ शब्दों पर पाबंदी लगा दे वहां ‘भोसड़ी के’ शब्दयुग्म की भरमार के साथ कोई फिल्म कैसे रिलीज हो सकती है।

 खैर बात हो रही थी फिल्म के देशकाल की, यूं तो फिल्म की कहानी 90 के दशक के बदलाव के दौर की कहानी है जिसने हमें बहुत कुछ दिया लेकिन समाज से बहुत कुछ छीना भी और यह फिल्म उसी उधेड़बुन को ‘पप्पू की दुकान’, ‘धर्मनाथ पांड़े’ और बनारस के घाट किनारे वाले ‘मोहल्ला अस्सी’ से पेश करती है। इसमें बात है मंडल आयोग की, बाबरी मस्जिद विध्वंस की और एक आयातित संस्कृति से खुद को बचाने की जद्दोजहद की।

अब चूंकि इस समय सरकार देश में भाजपा की है और फिल्म कहीं ना कहीं उनको कठघरे में खड़ा करने का काम करती है तो इसका रिलीज होना लाजिमी नहीं लेकिन उसके बबवजूद ऐसे समय में इस फिल्म का बनना इसकी स्वीकार्यता को बढ़ा देता है।

 खैर बातें बहुत हुईं, अब फिल्म पर आते हैं। किताब में कई किरदार हैं और उनकी कई कहानियां लेकिन फिल्म में आप इतना घालमेल नहीं कर सकते तो फिल्म मुख्य पात्र धर्मनाथ पांड़े के किरदार के इर्द-गिर्द घूमती है।

 हालांकि मुझे इस किरदार में सनी देओल मिसफिट ही लगे क्योंकि जिन दृश्यों में चरित्र का काईंयापन दिखाना था वहां उनका चेहरा भावशून्य नजर आता है। इतना ही नहीं इस किरदार में थोड़ा तोंदू सा व्यक्ति ज्यादा सटीक लगता ना कि कोई बलिष्ठ व्यक्ति जैसे कि सनी देओल हैं। हो सकता है कि उन्हें फिल्म की थोड़ी सी स्टार वैल्यू बढ़ाने के लिए रखा गया हो क्योंकि उनके अलावा पूरी फिल्म में कोई सितारा हैसियत वाला कलाकार नहीं है।

 देखा जाए तो बनारस के पंडा के किरदार में सौरभ शुक्ला ज्यादा जंचते हैं।  बेहतर ही होता यदि वे धर्मनाथ पांड़े के किरदार में होते, क्योंकि फिल्म का विषय ऐसा है कि उसे सनी देओल जितने स्टारडम की जरूरत नहीं थी।

 अगर मैं इसी संदर्भ में बात करूं तो बनारस की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म ‘धर्म’ में पंकज कपूर अपने कंधों पर पूरी फिल्म को खड़ा रखते हैं, वहां स्टार की जरूरत नहीं थी, खैर सनी इतने भी फीके नहीं लगे हैं, वह फिल्म को बांधे रखते हैं।

 फिल्म में धर्मनाथ पांड़े की पत्नी सावित्री के किरदार में हैं साक्षी तंवर। उन्होंने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है और वह फिल्म में उपन्यास की सावित्री को जीवंत रूप देने में वह पूरी तरह समर्थ रही हैं। लेकिन रवि किशन अब सच में बोरियत महसूस कराने लगे हैं क्योंकि ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ से लेकर अब तक उनके अभिनय में लेशमात्र भी अंतर नहीं आया है और हर फिल्म में उनका अभिनय समान ही रहता है।

 बाकी अन्य चरित्र कलाकार ही इस फिल्म की जान हैं फिर वह चाहें वकील साहब हों या प्रोफेसर साहब या बारबर बाबा सभी चरित्रों को पुस्तक से जैसा का तैसा लिया गया है। कई पात्रों के संवाद भी सीधे पुस्तक से लिए गए हैं जो किताब और फिल्म दोनों की मौलिकता को बनाए रखते हैं।

 'मोहल्ला अस्सी' में उस उधेड़बुन को पूरी तरह महसूस किया जा सकता है जो अभी हमारे समाज में व्याप्त है और पिछले 25 सालों से हम इसी उलझन से निकलने की कोशिश कर रहे हैं तो देखते हैं कि कब निजात मिलती है इन सब से। और इस फिल्म के अंत से यह सीखने की जरुरत नहीं कि आपको कहाँ जाना है अंततः , क्योंकि मेरे हिसाब से फिल्मों से ये बात नहीं सीखी जाती। तो बस आनंद लीजिये फिल्म का, हाँ फिल्म के संगीत में बिलकुल भी जान नहीं है।