अभी पिछले दिनों एक किताब "डिकोडिंग राहुल गांधी" को पढ़कर ख़त्म किया। ये राहुल गांधी के 2012 तक के सफर (अमूमन असफलताओं) की कहानी कहती है। पत्रकार आरती रामचंद्रन की इस किताब को आये लम्बा समय बीत चुका है इसलिए उसके बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका होगा, ऐसा मुझे लगता है। इसलिए मैं यहाँ किताब के बारे में ज्यादा ज़िक्र नहीं करूँगा। लेकिन हाँ इस किताब ने मन में कई सवालों को जन्म दिया उन पर तो बात की ही जा सकती है।
इस किताब को आप राहुल गांधी की एक अनाधिकारिक जीवनी (क्योंकि राहुल के बारे में कोई अन्य किताब उपलब्ध नहीं है) मान सकते हैं जो उनके जीवन के बहुत छोटे से कालखंड की बात करती है। लेकिन यह कितना विचित्र है कि राहुल पर लिखी गयी किताब में लेखक ने अपनी सिर्फ एक मुलाकात का ज़िक्र किया है बाकि जितने भी संदर्भ और वर्णन हैं वो सब दस्तावेजों और सहयोगियों से जुटाए गए हैं।
अब ये मेरी समझ से परे है कि किसी से एक मुलाकात में आप कितना उसके बारे में जान पाएंगे। यहाँ आम जीवन में रोज़ाना दफ्तर या कामकाज के दौरान में मिलने वाले लोगों को हम सही से नहीं जान पाते तो एक नेता को कैसे जान सकते हैं ? खैर किताब में राहुल के बारे में कई रोचक जानकारियां हैं जिनके बारे में शायद आम जनता को पता भी नहीं हो।
आज़ादी के हमारे नायकों ने अपने जीवन में कई किताबों को लिखने का श्रम किया। उस दौर में वो अपने साथियों को पत्र लिखा करते थे जिसमें उनकी अपनी निजी भावनाओं का पता चलता था। अगर जानना है कि पत्र किसी के अंदर ने मनुष्य को कैसे बाहर निकालते हैं तो गांधीजी और टॉलस्टॉय के बीच का पत्राचार पढ़िए। खैर इस दौर की तो कमी यही है कि इतिहास विलुप्त हो रहा है और नया इतिहास लिखा जा रहा है।
नेहरू-गांधी परिवार में राजीव गांधी के बाद जब से नयी पीढ़ी का उदय हुआ है तो ये लिखने की परंपरा कंही पीछे छूट गयी है। नेताओं का जन संवाद खत्म हो गया है और उसकी जगह चाटुकारों ने ले ली है। इसलिए आरती की किताब में भी राहुल का चित्रण उनके चाटुकारों के माध्यम से ही ज्यादा हुआ है।
खैर मैं राहुल की बात का अंत यंही करना चाहूंगा क्योंकि उनके जमा खाते में कुल मिलाकर "स्वयं सहायता समूह" की एक मात्र उपलब्धि है। वैसे यह कार्य भी मनमोहन सरकार की योजनाओं का हिस्सा था इसमें राहुल क्या योगदान है वो मुझे नहीं पता ! किताब भी राहुल के समस्याओं से भागने की ही बात करती है।
रंज इस बात का नहीं कि हम अपने नेताओं के बारे में कितना जानते हैं, सवाल ये है कि लोकतंत्र में सुरक्षा के नाम पर हमारे नेता लोक से ही दूर हो चलें हैं। फिर वो चाहें अपने आप को चाटुकारों से मुक्त बताने वाले नरेंद्र मोदी हों या अरविन्द केजरीवाल। इनमें से कोई भी जनता के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं है।
मैंने अपने बड़ो से नेहरू-गांधी दौर के कई किस्से सुने हैं उनमें से एक किस्सा नेहरू से जुड़ा है- (अभी इसकी सत्यता की जाँच की जानी बाकी है, लेकिन फिर भी किस्सा तो है, जांचने वाले इस किस्से जुड़े तथ्य बताएं तो बेहतर होगा।)
सोचना हमें ही है कि क्या हम अपने नेताओं को ऐसे ही दूर से देख के मनोरंजन करना चाहते हैं या उन्हें अपने जीवन में अपनाकर लोकतंत्र का उत्सव मनाना चाहते हैं क्योंकि मांगेगे नहीं तो मिलेगा भी नहीं। रही बात मनोरंजन की तो देखने से भी हो जाता है जबकि उत्सव में भाग लेना होता है।
वैसे अब नेताओं ने लिखना छोड़ दिया है और सरकारी अधिकारियों ने लिखना शुरू कर दिया है। नेहरू-गांधी परिवार में इंदिरा के बाद तो शायद ही किसी ने कुछ लिखा हो, तो हमें अपने नेताओं के बारे में पता कैसे चलेगा। भाजपा में लिखने को अच्छी विधा नहीं माना जाता तभी तो लिखने वाले जसवंत सिंह का क्या हश्र हुआ सबको पता है और लाल कृष्ण आडवाणी भी "माय लाइफ माय कंट्री" लिखने के बाद कहाँ हैं ये भी सभी को दिखाई दे रहा है।
खैर अभी इंतज़ार करिये क्या पता मनमोहन सिंह ही कुछ लिख दें...
नेहरू-गांधी परिवार में राजीव गांधी के बाद जब से नयी पीढ़ी का उदय हुआ है तो ये लिखने की परंपरा कंही पीछे छूट गयी है। नेताओं का जन संवाद खत्म हो गया है और उसकी जगह चाटुकारों ने ले ली है। इसलिए आरती की किताब में भी राहुल का चित्रण उनके चाटुकारों के माध्यम से ही ज्यादा हुआ है।
खैर मैं राहुल की बात का अंत यंही करना चाहूंगा क्योंकि उनके जमा खाते में कुल मिलाकर "स्वयं सहायता समूह" की एक मात्र उपलब्धि है। वैसे यह कार्य भी मनमोहन सरकार की योजनाओं का हिस्सा था इसमें राहुल क्या योगदान है वो मुझे नहीं पता ! किताब भी राहुल के समस्याओं से भागने की ही बात करती है।
रंज इस बात का नहीं कि हम अपने नेताओं के बारे में कितना जानते हैं, सवाल ये है कि लोकतंत्र में सुरक्षा के नाम पर हमारे नेता लोक से ही दूर हो चलें हैं। फिर वो चाहें अपने आप को चाटुकारों से मुक्त बताने वाले नरेंद्र मोदी हों या अरविन्द केजरीवाल। इनमें से कोई भी जनता के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं है।
मैंने अपने बड़ो से नेहरू-गांधी दौर के कई किस्से सुने हैं उनमें से एक किस्सा नेहरू से जुड़ा है- (अभी इसकी सत्यता की जाँच की जानी बाकी है, लेकिन फिर भी किस्सा तो है, जांचने वाले इस किस्से जुड़े तथ्य बताएं तो बेहतर होगा।)
"एक बार जवाहरलाल नेहरू तीनमूर्ति वाले घर से निकल रहे थे तो उन्होंने एक बुजुर्ग सफाईकर्मी को झाड़ू लगाते देखा। उस समय झाड़ू में डंडा नहीं लगा होता था तो उस बुजुर्ग को झुककर झाड़ू लगानी पड़ रही थी। यह देखकर नेहरू रुक गए और उस बुजुर्ग से बात करने पहुँच गए। उसके बाद उन्होंने सरकारी सफाईकर्मियों की झाड़ू में डंडा लगाने का निर्णय लिया और ऐसे ये परंपरा शुरू हुई।"हालाँकि मोदी ने भी एक दो बार ये जताया कि वो सर्व सुलभ होने की इच्छा रखते हैं। लेकिन यह मुझे रस्मी ज्यादा लगा। भारतीय राजनीति अन्य उभरते सितारे केजरीवाल के बारे में तो यही कहा जाता है कि सर्व सुलभ होना तो दूर वो तो कई बार अपने विधायकों के लिए भी उपलब्ध नहीं होते।
सोचना हमें ही है कि क्या हम अपने नेताओं को ऐसे ही दूर से देख के मनोरंजन करना चाहते हैं या उन्हें अपने जीवन में अपनाकर लोकतंत्र का उत्सव मनाना चाहते हैं क्योंकि मांगेगे नहीं तो मिलेगा भी नहीं। रही बात मनोरंजन की तो देखने से भी हो जाता है जबकि उत्सव में भाग लेना होता है।
वैसे अब नेताओं ने लिखना छोड़ दिया है और सरकारी अधिकारियों ने लिखना शुरू कर दिया है। नेहरू-गांधी परिवार में इंदिरा के बाद तो शायद ही किसी ने कुछ लिखा हो, तो हमें अपने नेताओं के बारे में पता कैसे चलेगा। भाजपा में लिखने को अच्छी विधा नहीं माना जाता तभी तो लिखने वाले जसवंत सिंह का क्या हश्र हुआ सबको पता है और लाल कृष्ण आडवाणी भी "माय लाइफ माय कंट्री" लिखने के बाद कहाँ हैं ये भी सभी को दिखाई दे रहा है।
खैर अभी इंतज़ार करिये क्या पता मनमोहन सिंह ही कुछ लिख दें...