रविवार, 17 जुलाई 2016

कितने दूर चले गए हमारे नेता?


 भी पिछले दिनों एक किताब "डिकोडिंग राहुल गांधी" को पढ़कर ख़त्म किया। ये राहुल गांधी के 2012 तक के सफर (अमूमन असफलताओं) की कहानी कहती है। पत्रकार आरती रामचंद्रन की इस किताब को आये लम्बा समय बीत चुका है इसलिए उसके बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका होगा, ऐसा मुझे लगता है। इसलिए मैं यहाँ किताब के बारे में ज्यादा ज़िक्र नहीं करूँगा। लेकिन हाँ इस किताब ने मन में कई सवालों को जन्म दिया उन पर तो बात की ही जा सकती है।

 इस किताब को आप राहुल गांधी की एक अनाधिकारिक जीवनी (क्योंकि राहुल के बारे में कोई अन्य किताब उपलब्ध नहीं है) मान सकते हैं जो उनके जीवन के बहुत छोटे से कालखंड की बात करती है। लेकिन यह कितना विचित्र है कि राहुल पर लिखी गयी किताब में लेखक ने अपनी सिर्फ एक मुलाकात का ज़िक्र किया है बाकि जितने भी संदर्भ और वर्णन हैं वो सब दस्तावेजों और सहयोगियों से जुटाए गए हैं।

 अब ये मेरी समझ से परे है कि किसी से एक मुलाकात में आप कितना उसके बारे में जान पाएंगे। यहाँ आम जीवन में रोज़ाना दफ्तर या कामकाज के दौरान में मिलने वाले लोगों को हम सही से नहीं जान पाते तो एक नेता को कैसे जान सकते हैं ? खैर किताब में राहुल के बारे में कई रोचक जानकारियां हैं जिनके बारे में शायद आम जनता को पता भी नहीं हो।

 आज़ादी के हमारे नायकों ने अपने जीवन में कई किताबों को लिखने का श्रम किया। उस दौर में वो अपने साथियों को पत्र लिखा करते थे जिसमें उनकी अपनी निजी भावनाओं का पता चलता था। अगर जानना है कि पत्र किसी के अंदर ने मनुष्य को कैसे बाहर निकालते हैं तो गांधीजी और टॉलस्टॉय के बीच का पत्राचार पढ़िए। खैर इस दौर की तो कमी यही है कि इतिहास विलुप्त हो रहा है और नया इतिहास लिखा जा रहा है।

 नेहरू-गांधी परिवार में राजीव गांधी के बाद जब से नयी पीढ़ी का उदय हुआ है तो ये लिखने की परंपरा कंही पीछे छूट गयी है। नेताओं का जन संवाद खत्म हो गया है और उसकी जगह चाटुकारों ने ले ली है। इसलिए आरती की किताब में भी राहुल का चित्रण उनके चाटुकारों के माध्यम से ही ज्यादा हुआ है।

 खैर मैं राहुल की बात का अंत यंही करना चाहूंगा क्योंकि उनके जमा खाते में कुल मिलाकर "स्वयं सहायता समूह" की एक मात्र उपलब्धि है। वैसे यह कार्य भी मनमोहन सरकार की योजनाओं का हिस्सा था इसमें राहुल क्या योगदान है वो मुझे नहीं पता ! किताब भी राहुल के समस्याओं से भागने की ही बात करती है। 

 रंज इस बात का नहीं कि हम अपने नेताओं के बारे में कितना जानते हैं, सवाल ये है कि लोकतंत्र में सुरक्षा के नाम पर हमारे नेता लोक से ही दूर हो चलें हैं। फिर वो चाहें अपने आप को चाटुकारों से मुक्त बताने वाले नरेंद्र मोदी हों या अरविन्द केजरीवाल। इनमें से कोई भी जनता के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं है। 

 मैंने अपने बड़ो से नेहरू-गांधी दौर के कई किस्से सुने हैं उनमें से एक किस्सा नेहरू से जुड़ा है- (अभी इसकी सत्यता की जाँच की जानी बाकी है, लेकिन फिर भी किस्सा तो है, जांचने वाले इस किस्से जुड़े तथ्य बताएं तो बेहतर होगा।)
"एक बार जवाहरलाल नेहरू तीनमूर्ति वाले घर से निकल रहे थे तो उन्होंने एक बुजुर्ग सफाईकर्मी को झाड़ू लगाते देखा। उस समय झाड़ू में डंडा नहीं लगा होता था तो उस बुजुर्ग को झुककर झाड़ू लगानी पड़ रही थी। यह देखकर नेहरू रुक गए और उस बुजुर्ग से बात करने पहुँच गए। उसके बाद उन्होंने सरकारी सफाईकर्मियों की झाड़ू में डंडा लगाने का निर्णय लिया और ऐसे ये परंपरा शुरू हुई।"
  हालाँकि मोदी ने भी एक दो बार ये जताया कि वो सर्व सुलभ होने की इच्छा रखते हैं। लेकिन यह मुझे रस्मी ज्यादा लगा। भारतीय राजनीति अन्य उभरते सितारे केजरीवाल के बारे में तो यही कहा जाता है कि सर्व सुलभ होना तो दूर वो तो कई बार अपने विधायकों के लिए भी उपलब्ध नहीं होते।

 सोचना हमें ही है कि क्या हम अपने नेताओं को ऐसे ही दूर से देख के मनोरंजन करना चाहते हैं या उन्हें अपने जीवन में अपनाकर लोकतंत्र का उत्सव मनाना चाहते हैं क्योंकि मांगेगे नहीं तो मिलेगा भी नहीं। रही बात मनोरंजन की तो देखने से भी हो जाता है जबकि उत्सव में भाग लेना होता है।

 वैसे अब नेताओं ने लिखना छोड़ दिया है और सरकारी अधिकारियों ने लिखना शुरू कर दिया है। नेहरू-गांधी परिवार में इंदिरा के बाद तो शायद ही किसी ने कुछ लिखा हो, तो हमें अपने नेताओं के बारे में पता कैसे चलेगा। भाजपा में लिखने को अच्छी विधा नहीं माना जाता तभी तो लिखने वाले जसवंत सिंह का क्या हश्र हुआ सबको पता है और लाल कृष्ण आडवाणी भी "माय लाइफ माय कंट्री" लिखने के बाद कहाँ हैं ये भी सभी को दिखाई दे रहा है।

 खैर अभी इंतज़ार करिये क्या पता मनमोहन सिंह ही कुछ लिख दें...

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

अच्छा हुआ कपिल कलर्स छोड़ आए

वडाली बंधु कपिल के शो में
 च्छा ही हुआ कि कपिल शर्मा ने कलर्स चैनल छोड़ दिया। इसी वजह से कम से कम वो टाइप्ड होते-होते बच गए। कलर्स पर जब उनका शो आ रहा था तो उसमें विविधता (वैरिएशन) की बहुत कमी थी। उनकी हाज़िर जवाबी भी भद्दे मजाक में तब्दील हो रही थी, लेकिन वो जब से सोनी पर अपने शो का नया रूप लेकर आये हैं ये एकदम बदला-बदला सा है।

 उनके नए शो में कलाकारों की प्रस्तुति, उसके अतिथियों में, उसकी भाषा में और विषयवस्तु अभी में बहुत बदलाव आया है जो उन्हें फिर से नकलची होने से बचाता है और ये बताता है कि असल की ताकत बहुत बड़ी है। 

 खैर यहाँ बात उनके हाल में आए वडाली बंधु वाले एपिसोड की करते हैं। आम तौर मेरे जैसे संगीत प्रेमियों का वडाली बंधुओं से परिचय उनके गीतों से ही है। उनका 'तू माने या न माने दिलदारा' गाना मुझे कॉलेज के समय से पसंद है और नयी पीढ़ी के लखविंदर वडाली का 'चरखा' अभी कुछ समय पहले ही मन में बसा है। उनका गायक के अलावा एक आम इंसान के रूप में परिचय कपिल के सोनी पर आने के बाद ही हो पाया। उन्हें किस्सागोई करते, डांस करते देखना कितना नया है? मात्र चाय न पिलाने के कितने किस्से, सब स्मृति में समाने लायक।

 सोनी पर आने के बाद कपिल का शो बॉलीवुड के परकोटे से बाहर आया है। उनके शो में अब बॉलीवुड फिल्मों के पब्लिक रिलेशन और प्रचार मंच से आगे बढ़ने की कसक दिख रही है। मराठी फिल्म 'सैराट' के कलाकारों को हिंदी के दर्शकों से रूबरू कराना अपने आप में बताता है कि कपिल की सोच में बदलाव आया है। मैं यह बात इसलिए भी लिख रहा हूँ क्योंकि कपिल इस शो के सह-निर्माता भी हैं।

 सानिया मिर्जा और ड्वेन ब्रावो की बॉलीवुड सितारों के साथ जोड़ी बनाकर किया गया उनका प्रयोग स्पष्ट करता है कि वो असल करने में विश्वास करते हैं,नक़ल में नहीं। अब यूँ तो हम नवजोत सिंह सिद्धू को कई बरसों से हँसते देख रहे हैं लेकिन उनका परिवार कैसा है इसके बारे में हमें कपिल के शो ने ही बताया।

 देखा जाए तो कपिल का शो अब ज्यादा मानवीय स्वरूप लिए हुए है। इससे पहले टीवी पर आए फारुख शेख के 'जीना इसी का नाम है' और ऋचा अनिरुद्ध के 'ज़िंदगी लाइव' जैसे टॉक शो ही मुझे याद हैं जिनके मूल में मानवीय संवेदनाएं हैं। 'जीना इसी का नाम है' में फिल्म, राजनीति, कारोबार, प्रशासन और खेल जगत से जुड़ी कई हस्तियां शामिल रही तो वहीं 'ज़िंदगी लाइव' में ये संवेदनाएं आम लोगों के जीवन संघर्ष से जुड़ गईं।  

 हालाँकि मेरा प्रयास यहाँ किसी भी प्रकार से इन सभी शो की तुलना करना नहीं है क्योंकि कपिल का शो अच्छा है लेकिन अभी भी इन दोनों शो के स्तर का नहीं है। चूँकि कपिल के शो में हास्य प्रधान है तो उसमें संवेदनाएं भी हल्के-फुल्के अंदाज वाली हैं, अब आप चाहें तो गोविंदा या राहत फ़तेह अली खान के शो को ही देख लें। 

 टीवी के लिए शेखर सुमन, सिमी ग्रेवाल, करण जौहर, रजत शर्मा और अनुपम खेर ने भी टॉक शो बनाए, लेकिन इनमें से अधिकतर या तो चकाचौंध भरे या उपदेशात्मक रहे। सितारों के जीवन की मानवीय संवेदनाएं इन शो में उतने अच्छे से उजागर ही नहीं हुई। इस जमात में आमिर खान का 'सत्यमेव जयते' और अमिताभ बच्चन का 'आज की रात है जिंदगी' भी शामिल किये जा सकते हैं लेकिन ये मूलतः टॉक शो नहीं थे।

 वडाली बंधुओं वाला एपिसोड न सिर्फ कपिल को टाइप्ड होने से बचाता है बल्कि हमारा परिचय उस किस्सागोई से भी कराता है जो स्मार्टफोन की तकनीक और समाज से खत्म होते हास्य बोध से हमारे जूझने के बीच खत्म हो रही है। ये हमें वापस व्यक्तिवाद से सामाजिक बनने को प्रेरित करता है और हमारे जीवन के हर पहलू में घुस चुकी राजनीति से हमे थोड़ी देर के लिए दूर ले जाता है।

 ज़रा सोचिये कि सिर्फ चाय न पिलाने जैसी बात पर कितनी बातें और कितने ठहाके इस शो में लगे। ये 'तारक मेहता का उल्टा चश्मा' के अंत में दावा किये जाने वाले ठहाकों से तो बेहतर ही है। छोटे शहरों में जब लाइट चली जाती थी तो लोग छत की मुंडेर पर बैठकर ऐसी ही किस्सागोई किया करते थे। खैर सरकार अब गांवों में भी 24 घंटे बिजली देने में लगी है तो पता नहीं भविष्य में भी ये वहां बचेगी या नहीं क्योंकि सार्वजानिक यात्रा का सामाजिक संवाद तो वैसे ही कान में ठुंसे हेडफोन खा गए। कितना विचित्र है कि हर सुविधा भी हमारे लिए नामाकूल ही है।

 कपिल के शो की अंतिम बात जो मुझे पसंद है वो यह कि उसकी भाषा बिल्कुल सहज और जमीन से जुड़ी है। उसमें वही देसीपन है जो हमारे आपके बीच संवाद में होता है। वो बेड़ियों में वैसे नहीं बंधी है, जैसे कि "भाभी जी घर पर हैं' की भाषा में जकड़न है। कपिल में एक और जो बदलाव इस शो में दिख रहा है वो यह कि अब उनके ऊपर उनकी 'श्रेष्ठता' का अहम हावी नहीं है तभी तो वो सुनील ग्रोवर को पूरा मौका देते हैं और सुनील ग्रोवर जो कर रहे हैं उसकी चर्चा फिर कभी...
सुनील और कपिल