सच है ये...
छोटे शहर से आकर...
छोटे शहर से आकर...
इन बड़े शहरों को...
जवाँ बनाते हैं हम,
पर तुम क्या जानो...
इन पलों के लिए...
जवाँ बनाते हैं हम,
पर तुम क्या जानो...
इन पलों के लिए...
न जाने कितने पलों को...
बूढ़ा बनाते हैं हम,
एक ही समय में...
एक ही समय में...
बड़े शहर की ये जवानी...
कई छोटे शहरों के समय से...
अपनी भूख मिटाती है...
उस समय में...
कितने बड़े शहर बनाते हैं हम,
दिवाली पर हमारी भी...
दिवाली पर हमारी भी...
माँए राह देखती है...
लेकिन दिए यहीं जलाते हैं हम...
यहाँ के आशियानों की रौशनी के लिए...
खुद घर के दिए बुझा आते हैं हम,
इंतज़ार तो उसे...
इंतज़ार तो उसे...
होता है हर त्यौहार...
पर कभी-कभार ही...
घर जाते हैं हम...
यहाँ होली की रंगत के लिए...
घर बेरंग छोड़ आते हैं हम,
दफ़्तर-कॉलेज में...
दफ़्तर-कॉलेज में...
साथ रहकर भी...
रहते बाहरी ही हैं...
कभी चिंकी, कभी बिहारी बन...
यूँही भीड़ में पिट जाते हैं हम,
सपने यहीं सजते हैं...
सपने यहीं सजते हैं...
इसमें हम क्या करें...
कुछ सपने सँजोए...
संदूक उठाये चले आते हैं हम,
किराये के कमरों में...
किराये के कमरों में...
लड़कपन से जवानी तक...
दोस्ती लफ्ज़ के...
मायने तुम्हें समझाने को...
बचपन की दोस्ती को...
खूँटी से दीवार पर...
टांक आते हैं हम,
तुम क्या जानों...
तुम क्या जानों...
इधर की जवानी के लिए...
अपने घर पर...
बूढ़ी आखें निहारते...
छोड़ आते हैं हम,
फिर छोटे शहर को...
फिर छोटे शहर को...
गाँवों में कुछ और...
बुढ़ापे छोड़ आते हैं हम,