गुरुवार, 7 सितंबर 2017

कहने को बस यही है...

 ल शिक्षक दिवस था तो यह बात मैं कल भी लिख सकता था। लेकिन एक डर था कि कल की भीड़ में ये बात कहीं खो जाती। वैसे आजकल डर कई तरह के हो गए हैं, फिर वह चाहे अपनी बात कहने का डर हो, या सोशल मीडिया पर ट्रोल किये जाने का या सरकार से सवाल पूछने का। खैर इन सभी के बारे में फिर कभी बात की जा सकती है क्योंकि ये बात मैं आज करना ही नहीं चाहता... 

 बचपन में अक्सर हम अपने शिक्षकों से ही या आस-पास के लोगों से या बड़ों से ये सुना करते थे कि एक शिक्षक के जीवन का सबसे अच्छा पल क्या होता है...? जवाब होता था कि जब किसी शिक्षक का पढ़ाया कोई विद्यार्थी बहुत सालों बाद उससे मिलता है और अपने जीवन में बहुत सफल होने के बावजूद शिक्षक के पैर छू लेता है तो शिक्षक का सीना गर्व से फूल जाता है। 

 हमारी फ़िल्में भी शिक्षक जीवन के इस पहलू को दिखाती रही हैं। हाल के वर्षों में आयी "दो दूनी चार" और "चॉक एंड डस्टर" नाम की दो फ़िल्में मुझे याद हैं जिनमें यही बात दिखाई गयी है। लेकिन मेरा मानना है कि यह इस बात का केवल एक पहलू है।

 यदि कोई छात्र सफल होकर अपने शिक्षक का सम्मान करता है तो यह उस शिक्षक की निश्चित सफलता है। लेकिन उसके उन्हीं छात्रों में से कोई समाज का विनाशक हो जाता है तो क्या उसके पैर छूने से भी उस शिक्षक का सीना गर्व से फूल जाता होगा...?

 मेरा मानना है कि ये उस शिक्षक की असफलता तो है लेकिन उससे भी बड़ी ये उस छात्र की असफलता है कि वह अपने शिक्षक के लिए सम्मान का कारण नहीं है। यहीं पर एक छात्र की सफलता का प्रश्न भी खड़ा हो जाता है। 

 हमारे समाज की विडंबना भी यही है कि हम एक पक्ष से सारी जिम्मेदारियां निभाने को कहते हैं लेकिन हमारी दूसरे पक्ष के प्रति क्या जिम्मेदारी है, इस सवाल पर चूं तक नहीं करते। महिला-पुरुष संबंधों के दायरे में आप इस बात को देखेंगे तो ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाएंगे। तो यहाँ प्रश्न एक शिक्षक के प्रति विद्यार्थी की सफलता का है। इस छोटे से वाकये से समझाना चाहता हूँ... 
 "पिछले साल मैं अपने कॉलेज के पुरातन छात्र सम्मलेन में गया था। करीब 7-8 साल बाद कॉलेज जाना हुआ। तो अपने पुराने दोस्तों, शिक्षकों से मिलकर खुश था। सब यादों को ताज़ा कर रहे थे कि कौन क्या किया करता था ? कौन पढ़ाई में अव्वल था तो कौन किसी और काम में ?
इसी दौरान मेरे हिंदी के शिक्षक भास्कर रोशन वहां आये और वर्तमान वर्ष के छात्रों से मेरा परिचय कराने लगे।
भास्कर सर ने मुझे सिर्फ कॉलेज के फर्स्ट ईयर में हिंदी पढ़ाई थी। वो भी मेरा सिर्फ क्वालीफाइंग पेपर था। लेकिन उन्होंने जब मेरा परिचय कराया तो मेरे पास प्रतिक्रिया देने के लिए शब्द नहीं थे क्योंकि मुझे अंदाज़ा नहीं था कि उन्होंने मुझे इस तरह से याद रखा होगा। 
उनके शब्द थे, " ये मेरे उन छात्रों में से एक है जिसे मैंने शायद अपने जीवन में आज तक सबसे ज्यादा अंक दिए हैं। जबकि ये मुझसे सिर्फ क्वालीफाइंग पेपर ही पढ़ा करता था।"
 उस समय मुझे लगा कि ये शायद एक छात्र के तौर पर मेरी आंशिक ही सही लेकिन एक सफलता तो है।

 मुझे अहसास हुआ कि वाकई इस बात में कितनी गहराई है कि आप अपने शिक्षक को कैसे याद रखते हैं उससे बड़ी बात है कि वो आपको एक सफल छात्र के रूप में यद् रखता है जो समज को गढ़ रहा है या एक ऐसे छात्र के रूप में याद करता है जो समाज का विनाशक बन चुका है। 

 मेरा मानना है कि शिक्षक अपनी हिस्से का काम उसी दिन पूरा कर देता है जब वह अपने छात्र को डर से लड़ने की शक्ति दे देता है। उसके बाद जिम्मेदारी छात्र की होती है कि वह उस शक्ति का इस्तेमाल अपने शिक्षक का सीना गर्व से फुलाने में इस्तेमाल करना चाहता है या उसके मस्तक को शर्मसार कर झुकाने में...
भास्करोदय...
 वैसे भास्कर सर की दो बातें मुझे हमेशा याद रहती हैं-

"लिखते समय शब्दों का इस्तेमाल बहुत कंजूसी से करना चाहिए।"
"गुस्से को दबाना चाहिए ,ना कि सवालों को। "