सोमवार, 21 जुलाई 2014

अंजान लोगों से दोस्ती न करें!!

 दिल्ली में पिछले सात सालों से हूँ।एक चीज थी जो मुझे लगता था की यहां शायद वो लोगों के बीच से कंही चली गयी है। पर आज लगा कि नहीं इतनी जल्दी भी हम सब कुछ कैसे भुला देंगे।
 पहले जब कभी यात्रा पर जाने का मौका मिलता था तो आस-पास वालों से बातचीत करते हुए वक्त कट जाया करता था। बस और ट्रेन से सफर के दौरान न जाने कितने मित्र बन जाया करते थे। सफर में फिर चाहे बात राजनीति की हो या फ़िल्मी गपशप, आसपास बैठे लोग रस के साथ बतिया थे। अब इससे हमारे विभिन्न धर्मों-जातियों-परम्पराओं वाले देश के बारे में हमारी जानकारी बढ़ती थी या नहीं वो मैं नहीं जानता लेकिन काम से काम सफर बीतते देर नहीं लगती थी। अखबार किसी एक के पास हो और या कोई गुलशन नंदा का नॉवेल या कोई पत्रिका उसे कंपार्टमेंट में बैठे या बस में आगे-पीछे सीट वाले सब लोग पढ़ ही लिया करते थे।
 फिर धीरे-धीरे हमारी जिंदगी में मोबाइल ने घुसपैठ करनी शुरू कर दी और बातचीत का यह अंतराल सिमटने लगा। तकनीक सस्ती हुई और मोबाइल से स्मार्टफोन, लैपटॉप और टैब तक की दूरी हमने कब ख़त्म कर ली पता ही नहीं चला लेकिन ट्रेन और बस में साथ सफर करने वालों से की जाने वाली वो बातें भी न जाने कंही ख़त्म सी हो गयी थीं।
Think as Delhi Metro Handrail
 दिल्ली मेट्रो में सफर के दौरान लोग आपको अक्सर कानों में कनखजूरे (हेडफोन) लगाये गाने सुनते मिल जायेंगे। खैर ये व्यक्तिगत पसंद का मामला है। लेकिन कई बार तो मुझे आश्चर्य होता कि साथ सफर करने वाले दोस्तों के झुंड भी संवाद नहीं करते हैं तो अनजानों से बात करना तो बेमाना है। ऐसे में समाज का संवाद गायब तो हो ही रहा है। अब इसके और क्या नुकसान हैं वो एक अलग चर्चा का विषय हो सकता है।
 पर आज मेट्रो का सफर कुछ उम्मीद जगाता है। कॉलेज जाने वाले कुछ लड़के जो साथ में ही खड़े थे उनसे थोड़ी बातचीत हो ही गयी और मेट्रो का सफर इतना बोरिंग भरा नहीं रहा जैसा अमूमन होता है। तो एक बेहतर उम्मीद है की बस अभी वो पूरी तरह नहीं खोया है जो बहुत दिनों से दिख नहीं रहा था।
 सच तो ये है कि हम अपनों के  पास हैं लेकिन अपने पास वालों से बहुत दूर ऐसा इस नयी बदलती दुनिया में हो तो रहा ही है। दिल्ली से नोएडा जाएँ या गुड़गांव हमारा सफर भी बहुत बोरिंग हो रहा है। एक तरफ हम कम्युनिकेशन एरा में जी रहे हैं और दूसरी तरफ संवाद भी नहीं कर रहे हैं। पता नहीं क्या हम बनना चाहते हैं और क्या बनते जा रहे हैं। लेकिन कम से कम महज इंसान बनने से तो अभी कोसों दूर हैं।
 वैसे मेट्रो में जाएँ तो उस उद्घोषक का हिंदी में वह डायलॉग जरूर सुनें जिसमें वो कहता है, "अंजान लोगों से दोस्ती न करें!!" अब उसे कौन बताये दोस्ती अनजान से ही होती है जान-पहचान वाले तो रिश्तेदार बन जाते हैं। कभी खुद से पूछें कि क्या आप अपने सभी दोस्तों को पहले से जानते थे ? मैं थोड़ा नियमों का उल्लंघन करते हुए उसकी बात नहीं मानता हूँ और मौका ए दस्तूर पर बात कर ही लेता हूँ। मुझे अपना सफर बोरिंग बनाना बिलकुल पसंद नहीं और ऐसी पहल करने में मैं कभी बुराई नहीं समझता।

फोटो विशेष-


यूँ जिंदगी भी एक दिन हमारी
डिब्बे में बंद न हो जाए
हम बस सुनते रहें अपनी कहानी
और कोई हमारी आवाज भी न सुन पाये....