सोमवार, 15 अगस्त 2016

पुलिस का एक रूप ये भी

 यूँ तो ये एक किस्सा भर है लेकिन हकीकत में यह उस बदलाव को दिखाता है जो व्यवस्था में आ रहा है।

अब ऐसा नहीं हो तो बेहतर है
 पिछले दिनों मैं अपने चाचा को छोड़ने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन गया था तो एक बात ने मेरा ध्यान खींचा। रेलवे स्टेशन पर फुटओवर ब्रिज से मैंने देखा कि लोग एक लंबी लाइन लगाकर ट्रेन आने का इंतज़ार कर रहे हैं। मालूम करने पर पता चला कि यह ट्रेन के जनरल डब्बे में सवारी करने वाले यात्रियों की लाइन है जो एक-एक करके उस डब्बे में चढ़ने की तैयारी में खड़े हैं।

 जिन लोगों ने कभी भी भारतीय रेल में जनरल डब्बे से यात्रा की है तो उन्हें पता होगा कि इस डब्बे में घुसना किसी जंग जीतने से कम नहीं है और बिहार जाने वाले मेरे साथियों के लिए यह विश्वयुद्ध के समान होता है। यह हमारी व्यवस्था की खामी है कि हमारी अधिकांश आबादी हमारी योजनायों का हिस्सा नहीं और अगर है भी तो उन योजनाओं में भारतीयता की निहायत कमी है। 

 भारत में अक्सर लोग बिना किसी पूर्व योजना के यात्रा करते हैं। इसलिए रेलवे में तत्काल वाली व्यवस्था बिलकुल हिट रही है और यही वजह है कि जनरल डब्बे जन सैलाब से भरे होते हैं।

 जनरल डब्बे में चढ़ने के दौरान अक्सर भगदड़ और जेबतराशी की घटनाएं होना अपने यहाँ आम हैं। जब इससे पार पाने के पुलिस के देसी तरीके को मैंने नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर देखा तो मैं सोचा कि ये व्यवस्था का पूरी तरह भारतीयकरण है। 

 हम अक्सर पुलिस के डंडा बजाने की आदत का विरोध करते हैं, करना भी चाहिए लेकिन अगर यह जनता के भले के लिए इस्तेमाल हो रही है तो क्या बुराई है। पहले डंडे के दर पर अगर किसी अच्छी आदत का विकास किया जा सकता है तो यह बेहतर है। उस दिन मैंने स्टेशन पर देखा कि एक कांस्टेबल हाथ में डंडा लिए लोगों की लाइन लगवा रहा था जो उस ट्रेन के जनरल डब्बे में सवार होना चाहते थे। 

 मैंने कांस्टेबल प्रदीप से जब बात की तो उसने कहा कि साहब आपको तो मालूम है कि हमारे यहाँ डंडे का हुकम चलता है। आप लाख चिल्ला लें लेकिन ये जनता डंडे से चलती है। हमें तो ऊपर से आदेश आये कि ट्रेन में यात्रियों को आराम से चढ़ाना है ताकि भगदड़ वगैरह न मचे, पहले एक दो दिन लाइन लगवाने की कोशिश की जब नहीं हुआ कुछ तो फिर डंडा खटकाया और लाइन लग गयी बस।

 उसने कहा कि अब आप देखो कितने आराम से सब चढ़ रहे हैं। कोई मारामारी नहीं। अब अगर यही लोग खुद से कर लें तो हमे भी डंडा नहीं उठाना पड़े। लेकिन हमारे बिना हड़काये कोई काम ही नहीं होता। हमारी भी म्हणत की बचत हुई। जेब कटना कम हो गया, भगदड़ नहीं मचती। पहले अक्सर ट्रेन में चढ़ते वक़्त लोग डब्बे और स्टेशन के बीच फंस जाते थे लेकिन तीन महीने से जब से इस सिस्टम को अपनाया है तो बस पांच मिनट की म्हणत और बाकी का आराम। इसके दो फायदे और हुए महिलाओं और विकलांगो के डब्बे में जबरदस्ती घुसने वालों पर रोक लग गयी।

 फिर मैंने भी प्रदीप से कहा कि ये तो बहुत बढ़िया है और सोचा कि आखिर पुलिस ने इस डंडा पिलाई का काम किया किसके भले के लिए। हमारे और अपने लोगों के लिए ही न तो फिर हम पुलिस के ऐसे कामों की तारीफ क्यों नहीं करते? बुराई तो पुलिस की होती ही रहती है लेकिन उसकी तारीफ भी होनी चाहिए जब वो देसी जुगाड़ हमारे लिए इस्तेमाल करती है।