रविवार, 29 मई 2016

छोटू with छोटू

छोटू with छोटू

 जी हाँ, इस तस्वीर को किसी साथी ने यही कैप्शन दिया तो मैंने शीर्षक में यही लिख दिया क्योंकि इससे बेहतर वैसे भी कुछ नहीं हो सकता। इस फोटो में मेरे साथ जलीस सर हैं जो हाल ही में भाषा से रिटायर हुए हैं और अपनी जिंदगी की नयी इनिंग शुरू कर चुके हैं। उनकी रिटायरमेंट पार्टी के दौरान ही हमें पता चला कि उनका एक नाम छोटू भी है वरना हम सभी के लिए तो वो जलीस सर ही हैं। मेरे साथ छोटू नाम यहाँ भाषा में आकर ही जुड़ा, तो आज यहाँ बात मेरा नाम छोटू पड़ने की क्योंकि इसमें जलीस सर का योगदान है और फिर अगली कड़ी में बात मेरे बड़े होने की और उसमें भी उनका ही योगदान है।

 दरअसल घर में मुझे छोटू होने का सुख प्राप्त नहीं है क्योंकि मुझसे छोटा मेरा एक भाई है और घर में सब उसे छोटू बुलाते हैं, वैसे भी एक ही घर में दो लोगों के एक ही नाम होना थोड़ा अजीब होता और फिर इस किस्से के शीर्षक की तरह हम भी घर में छोटू-1 और छोटू-2 होते। 

 हम एक ही घर में दो चाचाओं के बच्चों के साथ रहते हैं। मैं उनमें सबसे बड़ा हूँ तो मेरा उनके बीच हकीकत में कोई नाम ही नहीं हैं, उन सब के लिए मैं भैया हूँ और इस वजह से कभी-कभी मेरी माँ भी मुझे भैया बुलाती है। मोहल्ले-पड़ोस, रिश्तेदार कंही भी मैं छोटू नहीं हूँ क्योंकि वो छोटे भाई का हक़ है लेकिन हाँ यहाँ मेरे ऑफिस "भाषा" में मैं ही छोटू हूँ।

 हालाँकि जब ऑफिस में मुझे ये नाम मिला तो शुरुआत में मुझे कोई समस्या नहीं थी क्योंकि जब कोई उम्र में बड़ा व्यक्ति आपको इस नाम से बुलाए तो उसमें उनका प्यार झलकता है लेकिन जब आपके हम उम्र भी आपको छोटू कहने लगें तो मानव मनोविज्ञान के हिसाब से कोई भी झेंप जायेगा।

 इसी तरह मैंने भी कई जंग लड़ी इस नाम से छुटकारा पाने के लिए फिर अंततः मेरी तमाम असफल कोशिशों के बाद मैंने इस नाम को अपना ही लिया। मैंने मान लिया कि मुझसे छोटों के आने के बावजूद भाषा का छोटू मैं ही रहूँगा, और अब तो मैं इस पर अपना अधिकार मानता हूँ, कोई लेकर तो दिखाए मुझसे ये नाम अब। 

 तो किस्सा शुरू करते हैं कि भाषा में मुझे ये नाम मिला कहाँ से, इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा जिसके गवाह जलीस सर रहे हैं।
"भाषा में आये बहुत दिन नहीं बीते थे तब, हम ( यह यूपी-बिहार वाला हम नहीं हैं यहाँ इसका मतलब मेरे कुछ साथियों से है ) पहली बार संसद गए थे तब, सदन की कार्यवाही देखने का पहला अनुभव होने के चलते मैं कौतूहल से भरा हुआ था। 
कार्यवाही देख के निकले तो फोटो वगैरह खिंचवाने की सारी मुरादों को पूरा कर हम संसद में भाषा का कामकाज देखने गए, अरे भई नया-नया ही तो आया था तो जानना चाहता था कि एजेंसी में आखिर कैसे काम होता है। कई अच्छी यादों के साथ हम वहां भाषा के ऑफिस से बाहर निकले और चाय बोर्ड की चाय लेकर वहीं संसद के गलियारे में खड़े हो गए।
उस दौरान जलीस सर ने भाषा के शुरुआती संपादकों में से एक रहे एक सज्जन से हमारा परिचय कराया। (सज्जन इसलिए लिखा क्योंकि मुझे उनका नाम याद नहीं रहा, वैसे भी मेरी कमजोरी है कि एक मुलाक़ात में मुझे नाम याद नहीं होता, हाँ चेहरा जरूर याद रह जाता है। ) 
हाँ, तो उन सज्जन ने मुझे देखते ही कहा कि क्या भाषा में अब आठवीं पास छोटे-छोटे बच्चों को भी काम पर रखने लगे हैं। बस इसके बाद सब ठहाका मार कर हँस पड़े, मैं भी हँसा क्योंकि मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था।"
 अगले दिन इस घटना का ज़िक्र ऑफिस में छिड़ा और जो लोग मेरे साथ गए थे उन्होंने मेरी काफी टांग खिंचाई की। दो दिन बाद सप्ताहांत में 12 बजे करीब जब जलीस सर दफ्तर आये तो उन्होंने इस घटना का ज़िक्र शब्दशः और लोगों के साथ किया और फिर उसके बाद जब सीनियर्स ने दिल खोलकर जो हँसा वो मुझे अच्छा लगा क्योंकि अगर वो उस बात पर हँसे नहीं होते तो शायद आज यहाँ लिखने को कुछ नहीं होता।

 तो तब से मैं भाषा का छोटू बना और तभी से भाषा के इस छोटू यानी कि मुझे अब इंतज़ार करता है कि कोई तो मेरी टांग खींचे और इसके लिए कई बार उड़ता हुआ तीर पकड़ने में भी मुझे गुरेज नहीं हैं। इसके पीछे भी वजह है कि अगर वो तीर दूसरी दिशा में चला गया तो मेरे पास तो इन किस्से-कहानियों का टोटा पड़ जायेगा...जो मैं होने नहीं देना चाहता।

गुरुवार, 26 मई 2016

मौसम की वो आख़िरी बारिश..


छज्जों पर हमारे प्यार की..
पींगें बढ़ रही थीं..
उस पर बारिश का मौसम..
नए रंग में उसे रंग रहा था..
शायद ये मेरा पहला..
एहसास था प्यार का..
और बारिश भी तो पहली ही थी..

फिर दस्तक दी सर्दियों ने..
लेकिन बारिश वो तो..
होए ही जा रही थी..
मन में समय में प्रेम की..
उस पहली मुलाकात की प्यास..
बुझाना..
कहाँ इस बारिश के बस में था..

फिर एक दिन..
हल्की गुनगुनी धूप में..
छज्जे पर वो आई..
मैं रह न सका, और..

एक कागज़ी उस छज्जे में फेंक दी..
पर्ची क्या मिलने की अर्ज़ी थी..
जवाब जब हाँ आया..
लगा निकाह कबूल हो गया..

पड़ोसी की छत पर..
आई वो बहाना करके..
उस दरमियाँ सिर्फ वो मुंडेर..
हाँ वही तो बीच में थी..

फिर बस शुरू हुई बातें..
चलती रहीं न जाने कब तक..
कहना जो था पहली बारिश..
के वक़्त से अब तक की दास्ताँ..

दूर पड़ोसी की लड़की..
छत पर खड़ी हमें देखती रही..
तब अचानक बदरा गरजे..
हमारी बातें टूटी..

उसने कहा जा रही है वो..
वो चली गयी..
भीगते बालों को संवारते..
मेरे पास बस..
उन हाथों का स्पर्श ही बचा..

मैं खड़ा रहा दिनभर..
भीगता रहा उस बारिश में..
फिर उस मौसम में न बारिश हुई..
और ना छज्जे पर वो आई..

जेहन में बसी रही जो..
वो बस उसके हाथों की छुअन..
और और..
मौसम की उस आखिरी बारिश का एहसास..

नोट - यह इस कड़ी की आखिरी कविता है। इससे पहले दो भाग और हैं इस कविता के, पहला भाग पहली बारिश का एहसास.. और दूसरा भाग बारिश में प्यार का खुमार.. है।

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मंगलवार, 24 मई 2016

सैर सुबह की : हुमायूँ का मकबरा

हुमायूँ का मकबरा
ये बात उसी दिन की है जब मैं और मनीष सुबह की सैर पर हुमायूँ का मकबरा देखने गए थे। सबसे पहले हमने ईसा खान का मकबरा देखा था जिसके बारे में मैंने पहले लिखा है। ईसा खान का मकबरा देखने के बाद हमने मुख्य इमारत की ओर अपना मार्ग प्रशस्त किया।
अरब की सराय में जाने वाला दरवाजा

 जैसे ही हम आगे बढ़े हमारे पीछे वो तीन लड़के भी आ गए जो अपने संभवतः नए-नवेले डीएसएलआर कैमरे से ईसा खान के मकबरे में खेल रहे थे। मनीष उनसे पहले ही खीझ चुका था इसलिए हम अरब की सराय की ओर मुड़ गए।

 अरब की सराय के बारे में ज्यादा कुछ खास जानकारी तो हमें हासिल नहीं हो पायी लेकिन इतना पता चला कि इसका निर्माण हुमायूँ के मकबरे का निर्माण करने वाले मजदूरों के रहने के लिए कराया गया था। इसी से लगी अफ़सर की मस्ज़िद पर हम थोड़ी देर रुके और कई फोटो लिए।

अफ़सर की मस्ज़िद के पास योग करती महिलाएं
 हुमायूँ के मकबरे का परिसर वहां आस-पास रहने वाले लोगों के लिए खुला है इसलिए सुबह के समय लोग कसरत करते, योग करते हुए आपको इस परिसर में यहाँ-वहाँ दिख जाएंगे। हमें भी अफ़सर की मस्जिद से लगे हुए अफ़सर के मकबरे के आगे दो युवतियां योगाभ्यास करते हुए नज़र आयीं। पता नहीं क्यों हम दोनों को वहां घूमता देख वो थोड़ी देर के लिए रूक गईं। शायद हम दोनों अकेले लड़के थे इसलिए या लड़कों के बारे में हमारे समाज की लड़कियों के मन में जिस तरह का असुरक्षा का भाव व्याप्त है उस वजह से लेकिन वो थोड़ी देर तक बिलकुल शांत रही। जब उन्हें लगा कि हमसे उन्हें कोई हानि नहीं होगी तो वो फिर से अपने योगाभ्यास में व्यस्त हो गईं।

मकबरे के मुख्य द्वार का एक दृश्य
 इसके बाद अंततः हम मुख्य परिसर की ओर चल दिए और अब तक वो तीन लड़के भी हमसे दूर हो चले थे जिनकी वजह से विशेष तौर पर मनीष परेशान था। मैं तो हुमायूँ के मकबरे को तीसरी बार देखने आया था लेकिन मनीष के लिए यह अनुभव नया था क्योंकि वो पहली बार यहाँ आया था। इतनी बड़ी इमारत देख के उसे कैसा लगा ये तो वही जाने लेकिन मुझे इस इमारत की जो बात सबसे पसंद है वो है इसकी तकनीक।

 आज जैसे अत्याधुनिक साधनोंं के बिना इतनी बड़ी इमारत की परिकल्पना और उसमें भी ख़ूबसूरती को पिरोना अपने आप में अभूतपूर्व है। मैं तो इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ तो मेरी दिलचस्पी शुरू से ऐसी इमारतों में रही है। भले ही आजकल तथाकथित बुद्धिजीवी इन्हें सामंतवाद या निरंकुशता का प्रतीक मानते हों लेकिन कल्पना कीजिये कि ये प्रतीक नहीं होते तो फिर हमारे पास इतिहास के नाम पर होता क्या ?

गुम्बद के अंदर का नज़ारा,
साथ में लटकता झाड़फानूस
 खैर यहाँ ये चर्चा का विषय नहीं है, मैं बात कर रहा था हुमायूँ के मकबरे की। इस मकबरे की सबसे बड़ी खासियत जो मुझे लगती है वो है इसका गुम्बद क्योंकि ये मुख्य इमारत की मूल पहचान है और इसे साधने में जो तकनीक इस्तेमाल की गयी है वो काबिले तारीफ है। बचपन में हम पढ़ा करते थे कि यदि किसी वस्तु के भार को विभिन्न भागों में बाँट दिया जाये तो उसे साधना आसान हो जाता है ठीक वैसे ही जैसे किसी बड़े पत्थर को हटाने के लिए हम एक बांस का प्रयोग कर खुद की मेहनत कम कर लेते थे और उसका भार उस बांस पर डाल दिया करते थे। अब ये नियम कौन सा है वो मुझे याद नहीं लेकिन इस इमारत में भी गुम्बद के वजन को इसके आस-पास की दीवारों पर डाल दिया गया है तभी तो कई फुट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर स्थित होने के बावजूद ये गुम्बद अटल खड़ा है।

झरोखा
 हुमायूँ के मकबरे की एक और खास बात इसमें प्रयोग की गयी जालियां हैं जो बाद में मुग़लकाल की लगभग हर इमारत में नज़र आती हैं और सलीम चिश्ती की दरगाह (फतेहपुर सीकरी) में संगमरमर में ढलकर इसका अनोखा स्वरूप उभर के आता है। मुग़लकाल की 'बादशाह का झरोखा दर्शन' परंपरा में भी इन जालियों का अहम योगदान है। इस इमारत में झरोखे की अहमियत मुझे इसलिए ज्यादा नज़र आती है क्योंकि ईमारत को ठंडा, हवादार और प्रकाशमान बनाए रखने में इसी का सर्वाधिक योगदान है। हर तरफ से और हर समय की सूर्य की रोशनी मुख्य इमारत के बीच बनी हुमायूँ की कब्र तक पहुंचाने का बंदोबस्त ये झरोखे ही करते हैं।


नहर-ए-बहिश्त
 इसके पीछे एक वजह ये भी कि दरअसल इस इमारत को जन्नत का स्वरूप देने की कोशिश की गयी है और बादशाह को परवरदिगार के बराबर का दर्ज दिया गया है। इसलिए इसमें चारबाग शैली के बीच में मुख्य इमारत बनायी गयी है। चारों बागों को एक नहर विभाजित करती है जो दिल्ली के लाल किले की नहर-ए-बहिश्त की तरह है और जिसकी तस्दीक ताजमहल में भी होती है। कब्र का प्रतीक जमीन से ऊपर बनाया गया है जो अल्लाह के हमसे ऊपर होने का संकेत देता है। उस कक्ष में भरपूर रोशनी, उसकी दुनिया में उजियारे का स्वरूप है और विस्मय से भर देने वाली इसकी भव्यता अल्लाह की अभूतपूर्व छवि का निर्माण करने के लिए हैं जिसके बराबर यहाँ बादशाह को दर्जा दिया गया है।

 असल में यह विशेषताएं मुग़लकाल की सभी इमारतों का मूल स्रोत है जिसकी परिणति आगरा के ताजमहल में जाकर होती है। वहां पर अल्लाह का स्वरुप और सौम्य रूप में सामने आता है और जन्नत का भव्यतम दृश्य भी दृष्टिगोचर होता है क्योंकि वह  इमारत पूरी तरह सफ़ेद संगमरमर से बनी है। 

नाई का मकबरा
 इसी इमारत में एक नाई का मकबरा भी है जिसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन हाँ मनीष इसे देखकर बहुत खुश हुआ और अंततः उसने एक फोटो तो इस मकबरे के साथ खिचवाई वरना इस पूरी सैर के दौरान मैं ही मॉडलिंग करता रहा। मनीष के यहाँ पहुंचकर खुश होने की वजह शायद यहां पसरी वो छाँव थी जो उस धूप के मौसम की दरकार थी या वहां उठता वो धुआं जिसकी मनमोहक महक ने उसके मन को आबाद किया, लेकिन ये सिर्फ मेरा आकलन है असल बात तो वही जानता होगा। 

 तो गर्मियां बीतने दें और एक छोटी-सी सैर आप भी कर आएं इस खूबियों से भरी ऐतिहासिकता की।







हुमायूँ के मकबरे का स्मरणीय दृश्य

NOTE-All Picture Courtesy-Manish Sain

शनिवार, 14 मई 2016

बारिश में प्यार का खुमार..


कनखियों से देख-देख कर हम,
एक दूसरे के लिए जिंदा थे,

बारिश के मौसम में,
रोज एक दूसरे को देखने,
हम हो जाते बेताब थे,

पहली बारिश के बाद दूसरी,
फिर तीसरी, चौथी और,
बस इंतजार रहता,बारिश हो,
छत-छज्जे जहाँ भी हों,
बस किसी तरह दीदार हो,

दिल की बातें ज़ुबाँ पर आएँ,
उनकी नज़रों से गुलजार अब,
मेरा मन,छत-छज्जा सब था,

इल्म नहीं रहता कई बार,
कि क्या कर रहे होते,
कहाँ जाना है कहाँ चले जाते,

फिर एक दिन,बारिश की बूँदों के बीच,
उसने कुछ कहना चाहा,
पर मैं उसे सुन न पाया,

इन निगाहों से मैं,
उसे निहारता रहा,
जब मैं समझा उसकी बात,
तो बस आगे क्या कहूँ,
चलो उसे फिर कभी कहता हूँ...


यह मेरी पिछली कविता पहली बारिश का एहसास का दूसरा भाग है..

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रविवार, 8 मई 2016

दिल छीछालेदर, फेंक जूता लेदर


 ये बॉलीवुड फिल्म "गैंग्स ऑफ वासेपुर" का एक गाना है जिसके शब्दों को मैंने बस थोड़ा इधर-उधर करके लिखा है। अब लिखूं भी क्यूँ नहीं, हम सब अब इसी काम में तो लगे पड़े हैं, एक-दूसरे की छीछालेदर करने और आपस में एक-दूसरे पर जूता उछालने में।

  हाल के दिनों में आप ज़रा नज़र दौड़ाएं तो आपको समझ आएगा कि हम कहाँ जा रहे हैं। वैसे मुझे कहने का हक़ नहीं है लेकिन फिर भी गौर करें कि राजनीतिक जीवन का हमारे निजी जीवन में कितना अतिक्रमण हो गया है। आम तौर पर राजनीति और निजी जीवन के बीच एक तटस्था रहनी चाहिए लेकिन पिछले कुछ सालोंं में हम नितांत राजनीतिक हो गए हैं और समाज के परिदृश्य से ये ज्यादा अच्छा नहीं है। 

 हालाँकि ये मेरा निजी मत हो सकता है कि इस तरह हमारा राजनीतिक होते चले जाना या यूँ कहूं कि राजनीति में पगलाए जाना सामाजिक जीवन को गर्त में ले जाने वाला है वंही कुछ लोग इसे लोकतंत्र की मजबूती मान सकते हैं।

 लोकतंत्र में लोग किसी एक पार्टी के समर्थक या किसी दूसरी पार्टी के विरोधी होते रहे हैं लेकिन आप देखें इस जमात में "भक्त" एक नया शब्द आया है। भक्त कहना हमारे लोए थोड़ा सुविधाजनक है क्योंकि भारत में आपको इनके अनगिनत प्रकार मिलेंगे जिनमें राजनीतिक भक्त भी शामिल रहे हैं लेकिन आजकल इसका चलन थोड़ा ज्यादा हो गया है।

 लेकिन अब इस जमात का काम तर्कों और कुतर्कों पर बहस करने तक सीमित नहीं रहा बल्कि अब ये एक दूसरे की छीछालेदर और जूता फिंकाई का काम करने पर ही अपना ध्यान लगाते हैं। इसके दो फायदे हैं नेता-अभिनेता का प्रचार हो न हो इनकी साख जरूर बढ़ जाती है।

 अब इसे ज़रा ऐसे समझें कि जब स्मृति ईरानी की शिक्षा पर प्रश्न खड़ा हुआ तो हमने राहुल गांधी, तोमर इत्यादि सबकी शिक्षा पर प्रश्न खड़े कर दिए। मतलब सनम हम तो डूबेंगे ही लेकिन साथ तेरा वहां भी ना छोड़ेंगे। फिर वो चाहे बाद में गिरिराज सिंह, कठेरिया और भी ना जाने कितने नाम आये लेकिन हमारी कोशिश अपना दामन बचाने से ज्यादा दूसरे का गन्दा करने की रही।

 जनाब हम कब कह रहे हैं कि हमे पढ़े-लिखे नेता की जरुरत है क्योंकि मनमोहन सिंह पढ़े-लिखे हैं और हमने उनकी सरकार देखी है। इसके अलावा लालू यादव कथित तौर पर नहीं पढ़ें हैं, हमने उनकी भी सरकार देखी है तो नेता की पढ़ाई से भारतीयों को उतना फर्क नहीं पड़ता।

 पड़ेगा भी कैसे, हम तो अभी तक सामाजिक तौर पर बच्चों की पढ़ाई की जद्दोजहद में व्यस्त हैं। हम उन्हें पढ़ाई में लगाएं या कमाई में , बेटों को पढ़ाएं या बेटियों को हम इसी में पिसे जा रहे हैं तो भला नेताओं की पढ़ाई का हम क्या आचार डालेंगे ?

 माना कि आप पढ़े नहीं हैं तो फिर शर्माना कैसा? भैया दुनिया में ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने बिना पढ़े ही बड़े काम किये हैं।  एडिसन, सचिन तेंदुलकर ऐसे ही नाम हैं। तो आप शरमाते क्यों हैं बल्कि आप कुछ ऐसा सकारात्मक क्यों नहीं करते कि लोगों के सामने मिसाल पेश की जा सके कि देखो बिना पढ़ा-लिखा इंसान भी कमाल कर सकता है।

 जनाब तकलीफ आपके गैर पढ़े-लिखे होने से किसी को कहाँ है समस्या तो आपके दोगलेपन से है जो सामने कुछ बात करते हैं और पीठ पीछे कुछ। यही हाल आपने "भारत माता की जय" के नारे का भी किया।

 खैर राजनीति में ये जूता फिंकाई होती रही है वो बात और है कि मम्मी-पापा ने बचपन में ही बता दिया था कि "आजकल जमाना बड़ा ख़राब है" नहीं तो हम इसे ही ज़माने का सच मान बैठते।


लेकिन अब हम एक नए तरह की छीछालेदर बॉलीवुड में भी देख रहे हैं। मान लो कि कंगना-ऋतिक का प्रेम प्रसंग रहा और ये खबर लीक भी हो गयी लेकिन उसके बाद क्या..? हम और वो दोनों भी एक दूसरे की छीछालेदर करने उतर आये फिर बीच में सुमन-सुत भी कूद पड़े।

 आप इस बात को छोड़ दीजिये, हमने तो रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के "अंधों में काना राजा" वाली बात तक की छीछालेदर की जबकि उन्होंने सिर्फ एक मुहावरे का प्रयोग करके यथास्थिति बताने की कोशिश की थी। वो तो भले मानुष ठहरे राजन साहब जो माफ़ी मांग ली वरना लोग उनके बयां के साथ-साथ उनकी भी छीछालेदर करना जल्दी ही शुरू कर देते।

 अब ज़रा इसे गौर से समझें कि ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि हम वास्तव में नितांत राजनीतिक होते जा रहे हैं और हमारा अब हमने छीछालेदर को प्रचार बना दिया है। पहले हम कीचड़ मुंह पर लगने पर साफ़ कर लेते थे लेकिंन अब साफ़-सफाई तो हम झाड़ू की फोटो के साथ करते हैं हाँ लेकिन कीचड़ हाथ में लेकर दूसरे पर उसी समय फेंक देते हैं।

 इसलिए तो मैंने शुरुआत में ही कहा कि हमारा समाज "एक दूसरे की दिल से छीछालेदर" और "फेक लेदर का जूता नहीं" बल्कि "फेंक जूता लेदर" की ओर बढ़ रहा है। गौर से देखिये अपने आस-पास जो राजनीति के नाम पर हो रहा है वो क्या वाकई राजनीति है या बस हमने छीछालेदर को ही राजनीति बना दिया है या जिस समाज की ओर हम बढ़ रहे हैं वो अच्छा समाज है या नहीं, ये हमें सोचना होगा।

 बाकि आप जावेद अख्तर साहब का संसद का आखिरी भाषण सुनिए एवं समझिए और "भक्तों" को ढिंढोरा पीटने दीजिये क्योंकि वो इसी काम में माहिर हैं।

राज्यसभा टीवी के यूट्यूब चैनल से साभार 

मंगलवार, 3 मई 2016

पहली बारिश का एहसास..


आज की बारिश ने पहली बारिश के
अहसास को ताज़ा कर दिया..
मैं खड़ा था छत पर
कि तभी नज़र वो आई..
बारिश का मौसम इतना सुहाना
पहले कभी नहीं लगा..

अब छत से भागे हम उसके पीछे
पर वो फुरफुरा रही थी,काँप रही थी..
जब वैसे में उसने मुझे देखा..
तो वो सहम गयी..
अपने परों को समेटकर..
टकटकी निगाहों से मुझे देखने लगी..

मैं भी उसके पास जाने को बेताब था..
तभी एक हवा के झोंके ने उसे..
फिर मोहिनी रूप दे दिया..
और मैं अपने को रोक न सका..

चला उसको अपनी बाहों में बांधने..
उसे अपने आकंठ से लगाने..
उसका आलिंगन करने..

बारिश में उसका अधर रस..
पीने को मैं लालायित..

किन्तु जैसे ही मैं उसके नज़दीक पंहुचा..
वो शर्मा गयी..
और छिपा के आँचल में अपना मुखड़ा..
चली गयी घर के अन्दर..

फिर छज्जे पर वो खड़ी हो गयी.
तब से शुरू हुआ एक नया अध्याय..
मेरा और उसका खिडकियों से झाँकता..
प्रेमगान..!! 


नोट - इस कड़ी में दो और कविताएं लिखी हैं जिन्हें आगे साझा करूँगा. ( It is a poetry trilogy.)
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