छोटू with छोटू |
दरअसल घर में मुझे छोटू होने का सुख प्राप्त नहीं है क्योंकि मुझसे छोटा मेरा एक भाई है और घर में सब उसे छोटू बुलाते हैं, वैसे भी एक ही घर में दो लोगों के एक ही नाम होना थोड़ा अजीब होता और फिर इस किस्से के शीर्षक की तरह हम भी घर में छोटू-1 और छोटू-2 होते।
हम एक ही घर में दो चाचाओं के बच्चों के साथ रहते हैं। मैं उनमें सबसे बड़ा हूँ तो मेरा उनके बीच हकीकत में कोई नाम ही नहीं हैं, उन सब के लिए मैं भैया हूँ और इस वजह से कभी-कभी मेरी माँ भी मुझे भैया बुलाती है। मोहल्ले-पड़ोस, रिश्तेदार कंही भी मैं छोटू नहीं हूँ क्योंकि वो छोटे भाई का हक़ है लेकिन हाँ यहाँ मेरे ऑफिस "भाषा" में मैं ही छोटू हूँ।
हालाँकि जब ऑफिस में मुझे ये नाम मिला तो शुरुआत में मुझे कोई समस्या नहीं थी क्योंकि जब कोई उम्र में बड़ा व्यक्ति आपको इस नाम से बुलाए तो उसमें उनका प्यार झलकता है लेकिन जब आपके हम उम्र भी आपको छोटू कहने लगें तो मानव मनोविज्ञान के हिसाब से कोई भी झेंप जायेगा।
इसी तरह मैंने भी कई जंग लड़ी इस नाम से छुटकारा पाने के लिए फिर अंततः मेरी तमाम असफल कोशिशों के बाद मैंने इस नाम को अपना ही लिया। मैंने मान लिया कि मुझसे छोटों के आने के बावजूद भाषा का छोटू मैं ही रहूँगा, और अब तो मैं इस पर अपना अधिकार मानता हूँ, कोई लेकर तो दिखाए मुझसे ये नाम अब।
तो किस्सा शुरू करते हैं कि भाषा में मुझे ये नाम मिला कहाँ से, इससे जुड़ी एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा जिसके गवाह जलीस सर रहे हैं।
"भाषा में आये बहुत दिन नहीं बीते थे तब, हम ( यह यूपी-बिहार वाला हम नहीं हैं यहाँ इसका मतलब मेरे कुछ साथियों से है ) पहली बार संसद गए थे तब, सदन की कार्यवाही देखने का पहला अनुभव होने के चलते मैं कौतूहल से भरा हुआ था।
कार्यवाही देख के निकले तो फोटो वगैरह खिंचवाने की सारी मुरादों को पूरा कर हम संसद में भाषा का कामकाज देखने गए, अरे भई नया-नया ही तो आया था तो जानना चाहता था कि एजेंसी में आखिर कैसे काम होता है। कई अच्छी यादों के साथ हम वहां भाषा के ऑफिस से बाहर निकले और चाय बोर्ड की चाय लेकर वहीं संसद के गलियारे में खड़े हो गए।
उस दौरान जलीस सर ने भाषा के शुरुआती संपादकों में से एक रहे एक सज्जन से हमारा परिचय कराया। (सज्जन इसलिए लिखा क्योंकि मुझे उनका नाम याद नहीं रहा, वैसे भी मेरी कमजोरी है कि एक मुलाक़ात में मुझे नाम याद नहीं होता, हाँ चेहरा जरूर याद रह जाता है। )
हाँ, तो उन सज्जन ने मुझे देखते ही कहा कि क्या भाषा में अब आठवीं पास छोटे-छोटे बच्चों को भी काम पर रखने लगे हैं। बस इसके बाद सब ठहाका मार कर हँस पड़े, मैं भी हँसा क्योंकि मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था।"अगले दिन इस घटना का ज़िक्र ऑफिस में छिड़ा और जो लोग मेरे साथ गए थे उन्होंने मेरी काफी टांग खिंचाई की। दो दिन बाद सप्ताहांत में 12 बजे करीब जब जलीस सर दफ्तर आये तो उन्होंने इस घटना का ज़िक्र शब्दशः और लोगों के साथ किया और फिर उसके बाद जब सीनियर्स ने दिल खोलकर जो हँसा वो मुझे अच्छा लगा क्योंकि अगर वो उस बात पर हँसे नहीं होते तो शायद आज यहाँ लिखने को कुछ नहीं होता।
तो तब से मैं भाषा का छोटू बना और तभी से भाषा के इस छोटू यानी कि मुझे अब इंतज़ार करता है कि कोई तो मेरी टांग खींचे और इसके लिए कई बार उड़ता हुआ तीर पकड़ने में भी मुझे गुरेज नहीं हैं। इसके पीछे भी वजह है कि अगर वो तीर दूसरी दिशा में चला गया तो मेरे पास तो इन किस्से-कहानियों का टोटा पड़ जायेगा...जो मैं होने नहीं देना चाहता।