नोट- मेरी पिछली पोस्ट "सबला बनने को प्रेरित करना है" का यह संशोधित संस्करण है जो तहलका हिंदी में प्रकाशित हुई है 31 जुलाई 2013 के अंक में आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ।
कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनको साझा किए बिना मन नहीं मानता.
वह दिन मेरे लिए बिल्कुल आम दिन था. कुछ भी अलग नहीं. मैं हमेशा की तरह बस में बैठकर अपनी क्लास करने जा रहा था. बताता चलूं कि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर का छात्र था. वही जाने-पहचाने रास्ते थे और एक-सी सवारियां.
बस के यात्री रोज की तरह बस में चढ़ और उतर रहे थे. थोड़ी देर बाद बंगला साहिब बस स्टॉप आया और दो युवतियां बस में चढ़ीं. दोनों देखने में किसी कॉलेज की छात्रा लग रही थीं. मैं चूंकि महिला सीट पर बैठा था इसलिए मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार था कि किसी भी मोड़ पर मुझे सीट खाली करनी पड़ सकती है. वे मेरे पास आकर खड़ी हुई ही थीं कि मैंने झट सीट खाली कर दी. उनमें से एक लड़की बैठ गई और मैं दूसरी के बगल में खड़ा हो गया. बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली.
कुछ देर बाद बस सरदार पटेल मार्ग से गुजर रही थी, तभी मालचा मार्ग के पास एक स्टैंड से अधेड़-सी महिला बस में सवार हुई. ठसाठस भरी बस में वे सीट तलाश ही रही थीं कि उस बैठी हुई लड़की ने खुद ही अपनी सीट उनको दे दी. मुझे अजीब लगा कि उस महिला ने एक बार धन्यवाद तक नहीं कहा. खैर, मैंने मन में सोचा कि होते हैं ऐसे भी लोग मुझे क्या मतलब? यह भी कि दिल्ली में तो यह आम है. मैंने अक्सर देखा है कि यहां आप किसी की मदद करेंगे, उसे थोड़ी सुविधा देंगे और वह उसे अधिकार समझकर आपके साथ अवहेलना का व्यवहार करना आरंभ कर देगा. अभी सफर थोड़ा ही कटा था कि उस महिला ने बगल में बैठी महिला के साथ बातचीत शुरू कर दी.
मैं बहुत करीब खड़ा था और इसलिए मुझे सारी बातचीत एकदम साफ सुनाई दे रही थी. बातचीत के केंद्र में इन दोनों युवतियों का पश्चिमी पहनावा था. हालांकि बगल में बैठी उस दूसरी महिला के हाव-भाव से लग रहा था कि उसे इन बातों में कोई रुचि नहीं है फिर भी यह महिला लगातार बोले जा रही थी. अब मेरा धैर्य समाप्त होने लगा था और मुझे कुछ-कुछ गुस्सा आने लगा था. उन लड़कियों के पहनावे में कोई बुराई नहीं थी. उनका पहनावा एकदम आम था-जींस और टीशर्ट।
दिल्ली में ही क्या देश के किसी भी शहर में हर दूसरी लड़की आपको यही पहने मिलेगी और इसमें बुराई भी क्या है? मेरे जी में आया कि उस महिला को जमकर फटकार लगा दूं लेकिन मैं रुक गया. मुझे लगा कि मेरे पहल करने का क्या मतलब है जब वे दोनों युवतियां सब कुछ सुनकर भी चुपचाप खड़ी हैं. लेकिन मुझसे रहा नहीं गया और आखिरकार मैंने अपने बगल में खड़ी युवती से कह ही दिया, ‘एक बात बताइए इन कपड़ों से जब आपको या आपके घरवालों को कोई परेशानी नहीं तो आप इतनी देर से इनकी बकवास क्यों झेले जा रही हैं? जवाब देकर इन्हें शांत क्यों नहीं कर देतीं.’ मेरी बात का फौरन असर हुआ और उस लड़की ने अपना विरोध दर्ज कराया. कहीं से समर्थन नहीं मिलता देखकर आखिरकार उस महिला को अपनी बात बंद करनी पड़ी.
वह महिला तो थोड़ी देर बाद बस से उतर गई लेकिन उस दिन यह बात मेरी समझ में बहुत अच्छी तरह आ गई कि आखिर क्यों हमारे देश में औरत को औरत का दुश्मन माना जाता है. इसलिए कि सदियों से प्रताड़ना और दबाव सहन कर रही महिलाओं का मानस अब भी प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसका सीधा संबंध हमारे अंतर्मन से है. लेकिन इसके साथ-साथ मुझे यह भी समझ में आया कि जरूरी होने पर और सही जगह पर प्रतिरोध करना कितना जरूरी है और इससे कितनी गलत आदतों को रोकने में मदद मिलती है. वे लड़कियां मेरी कोई नहीं थीं. हो सकता है कि उनकी ओर से बोलने पर मुझे काफी कुछ सुनने को भी मिल जाता. यह भी हो सकता है वे लड़कियां भी मुझे ही कुछ बोल देतीं लेकिन उस लड़की को बोलने के लिए प्रेरित करके मुझे आत्मिक संतोष मिला. सच भी है आखिर कब तक लड़कियों को अबला बताकर कुछ पुरुष उनकी ढाल बनकर खड़े रहेंगे? उन्हें अपना बचाव खुद करना होगा. फिर चाहे उनके सामने दुश्मन कोई पुरुष हो या उनकी ही जाति का कोई भटका हुआ सदस्य!
तहलका में प्रकाशित स्टोरी का लिंक- http://www.tehelkahindi.com/index.php?news=1896