सोमवार, 29 जुलाई 2013

हर किसी को अपने हिस्से का विरोध करना होगा

साभार : ए क्रिएटिव यूनिवर्स
नोट- मेरी पिछली पोस्ट "सबला बनने को प्रेरित करना है" का यह संशोधित संस्करण है जो तहलका हिंदी में प्रकाशित हुई है 31 जुलाई 2013 के अंक में आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ।

 कुछ बातें ऐसी होती हैं जिनको साझा किए बिना मन नहीं मानता. 
वह दिन मेरे लिए बिल्कुल आम दिन था. कुछ भी अलग नहीं. मैं हमेशा की तरह बस में बैठकर अपनी क्लास करने जा रहा था. बताता चलूं कि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर का छात्र था. वही जाने-पहचाने रास्ते थे और एक-सी सवारियां.

 बस के यात्री रोज की तरह बस में चढ़ और उतर रहे थे. थोड़ी देर बाद बंगला साहिब बस स्टॉप आया और दो युवतियां बस में चढ़ीं. दोनों देखने में किसी कॉलेज की छात्रा लग रही थीं. मैं चूंकि महिला सीट पर बैठा था इसलिए मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार था कि किसी भी मोड़ पर मुझे सीट खाली करनी पड़ सकती है. वे मेरे पास आकर खड़ी हुई ही थीं कि मैंने झट सीट खाली कर दी. उनमें से एक लड़की बैठ गई और मैं दूसरी के बगल में खड़ा हो गया. बस अपने गंतव्य की ओर बढ़ चली.

 कुछ देर बाद बस सरदार पटेल मार्ग से गुजर रही थी, तभी मालचा मार्ग के पास एक स्टैंड से अधेड़-सी महिला बस में सवार हुई. ठसाठस भरी बस में वे सीट तलाश ही रही थीं कि उस बैठी हुई लड़की ने खुद ही अपनी सीट उनको दे दी. मुझे अजीब लगा कि उस महिला ने एक बार धन्यवाद तक नहीं कहा. खैर, मैंने मन में सोचा कि होते हैं ऐसे भी लोग मुझे क्या मतलब? यह भी कि दिल्ली में तो यह आम है. मैंने अक्सर देखा है कि यहां आप किसी की मदद करेंगे, उसे थोड़ी सुविधा देंगे और वह उसे अधिकार समझकर आपके साथ अवहेलना का व्यवहार करना आरंभ कर देगा. अभी सफर थोड़ा ही कटा था कि उस महिला ने बगल में बैठी महिला के साथ बातचीत शुरू कर दी.

 मैं बहुत करीब खड़ा था और इसलिए मुझे सारी बातचीत एकदम साफ सुनाई दे रही थी. बातचीत के केंद्र में इन दोनों युवतियों का पश्चिमी पहनावा था. हालांकि बगल में बैठी उस दूसरी महिला के हाव-भाव से लग रहा था कि उसे इन बातों में कोई रुचि नहीं है फिर भी यह महिला लगातार बोले जा रही थी. अब मेरा धैर्य समाप्त होने लगा था और मुझे कुछ-कुछ गुस्सा आने लगा था. उन लड़कियों के पहनावे में कोई बुराई नहीं थी. उनका पहनावा एकदम आम था-जींस और टीशर्ट।

 दिल्ली में ही क्या देश के किसी भी शहर में हर दूसरी लड़की आपको यही पहने मिलेगी और इसमें बुराई भी क्या है? मेरे जी में आया कि उस महिला को जमकर फटकार लगा दूं लेकिन मैं रुक गया. मुझे लगा कि मेरे पहल करने का क्या मतलब है जब वे दोनों युवतियां सब कुछ सुनकर भी चुपचाप खड़ी हैं. लेकिन मुझसे रहा नहीं गया और आखिरकार मैंने अपने बगल में खड़ी युवती से कह ही दिया, ‘एक बात बताइए इन कपड़ों से जब आपको या आपके घरवालों को कोई परेशानी नहीं तो आप इतनी देर से इनकी बकवास क्यों झेले जा रही हैं? जवाब देकर इन्हें शांत क्यों नहीं कर देतीं.’ मेरी बात का फौरन असर हुआ और उस लड़की ने अपना विरोध दर्ज कराया. कहीं से समर्थन नहीं मिलता देखकर आखिरकार उस महिला को अपनी बात बंद करनी पड़ी.

 वह महिला तो थोड़ी देर बाद बस से उतर गई लेकिन उस दिन यह बात मेरी समझ में बहुत अच्छी तरह आ गई कि आखिर क्यों हमारे देश में औरत को औरत का दुश्मन माना जाता है. इसलिए कि सदियों से प्रताड़ना और दबाव सहन कर रही महिलाओं का मानस अब भी प्रतिरोध के लिए तैयार नहीं है. कहने की जरूरत नहीं है कि इसका सीधा संबंध हमारे अंतर्मन से है. लेकिन इसके साथ-साथ मुझे यह भी समझ में आया कि जरूरी होने पर और सही जगह पर प्रतिरोध करना कितना जरूरी है और इससे कितनी गलत आदतों को रोकने में मदद मिलती है. वे  लड़कियां मेरी कोई नहीं थीं. हो सकता है कि उनकी ओर से बोलने पर मुझे काफी कुछ सुनने को भी मिल जाता. यह भी हो सकता है वे लड़कियां भी मुझे ही कुछ बोल देतीं लेकिन उस लड़की को बोलने के लिए प्रेरित करके मुझे आत्मिक संतोष मिला. सच भी है आखिर कब तक लड़कियों को अबला बताकर कुछ पुरुष उनकी ढाल बनकर खड़े रहेंगे? उन्हें अपना बचाव खुद करना होगा. फिर चाहे उनके सामने दुश्मन कोई पुरुष हो या उनकी ही जाति का कोई भटका हुआ सदस्य!

तहलका में प्रकाशित स्टोरी का लिंक- http://www.tehelkahindi.com/index.php?news=1896

शनिवार, 27 जुलाई 2013

सबला बनने को प्रेरित करना है।

साभार: टच टैलेंट डॉट कॉम
 बात ही ऐसी है कि उसे बयां करना जरूरी है। मैं रोजना की तरह बस से दिल्ली विश्विद्यालय के दक्षिण परिसर जा रहा था अपनी क्लास करने के  जा रहा था। सवारियां चढ़ रही थीं, उतर रही थीं और बस चलती जा रही थी। थोड़ी देर में बंगला साहिब के स्टैंड से दो लड़कियां बस में चढ़ी। देखने में तो कॉलेज की छात्रा ही लग रही थीं। उनमें से एक मेरे बगल में आकर खड़ी हो गयी, महिला सीट थी, मैं समझ गया, वो मुझसे कुछ कहती मैंने खुद ही खड़े होकर कहा कि सीट आप ले लीजिये। वो सीट पर बैठ गयी और उसके साथ वाली दोस्त वंही खड़ी हो गयी और मैं भी उनके बगल में ही खड़ा रहा और बस फिर अपने गंतव्य के लिए चलने लगी।

 बस कुछ देर में सरदार पटेल मार्ग से गुजर रही थी, तभी मालचा मार्ग के पास एक स्टैंड से अधेड़ सी महिला बस में सवार हुई। वो भी महिला सीट की तलाश में थी और तभी उस बैठी लड़की ने खुद ही कहा की आंटीजी आप बैठ जाइये। उस महिला ने धन्यवाद तक नहीं दिया, जो मुझे थोड़ा अजीब लगा, जब कभी मेरे साथ ऐसा होता तो अंग्रेजी में ‘‘यू शुड से थैंक्स टू मी’’ बोलकर मैं अपने परोपकार के अहम् को संतुष्टि दिला ही लेता था।

 बस में सीट पर बैठने के कुछ देर बाद पता नहीं उस महिला को क्या हुआ उसने अपनी पास वाली महिला से बातें करते हुए उन दोनों लड़कियों के कपड़ों को लेकर तरह-तरह की टिप्पणियां शुरू कर दी। हालाँकि बगल में बैठी महिला के हाव-भाव से लग रहा था कि उसे इन सब में कोई रूचि नहीं है, फिर भी वो महिला जारी रही। मुझे उस महिला पर गुस्सा आ रहा था। अब उन लड़कियों ने सिर्फ साधारण-सी जींस और टीशर्ट ही पहनी हुई थी, जो उस गर्मी में सही भी थी। मन में आया कि उस महिला को जमकर फटकार लगा दूँ, लेकिन मेरे दिमाग में उस समय कुछ और ही चल रहा था और मैंने फिर वही किया।
मैंने अपने बगल में खड़ी उस लड़की से कहा ‘‘एक बात बताओ जब इस तरह के कपड़ों से तुम्हें कोई परेशानी नहीं और न ही तुम्हारे माता-पिता को तो तुम इनकी ये बकवास सुन क्यूँ रही हो ? जवाब देकर इन्हें शांत क्यूँ नहीं करा देती।’’ मेरे कहने का असर हुआ और वो लड़की समझ गयी कि मैं क्या कहना चाहता हूँ। उसके बाद जो हुआ उसे मैं बयां नहीं करूँगा। हाँ, लेकिन वो महिला अगले ही स्टैंड पर उतर गयी।

 उस दिन मुझे समझ आया कि क्यूँ आखिर इस देश में औरत को ही औरत का शत्रु समझा जाता है क्यूंकि हमने उसके अंतःमन को प्रदूषित कर रखा है और एक बात जो समझ आई वो यह कि हमेशा जरूरी नहीं कि हम महिलाओं के लिए बाप,भाई या पति की ढाल बनकर खड़े हों यह तो हमें तब करना चाहिए जब इसकी आवश्यकता हो अन्यथा कोशिश यह हो कि हम उसे तलवार बनने को प्रेरित करें ताकि कम से कम अपने लिए तो वो लड़ सके। कब तक सहारा देकर उसे अबला बनाये रहेंगे ? उसे सही दिशा में प्रेरित कर हमें सबला बनाना है।

नोट- इस लेख का संपादित अंश तहलका में प्रकाशित हो चुका है। अगले लेख में वह संपादित अंश पढ़ें। लिंक यहाँ साझा कर रहा हूँ - हर किसी को अपने हिस्से का विरोध करना होगा

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

गाइड से दामुल के बीच

पिछले कुछ दिनों में कुछ ऐसी फ़िल्में देखी, जिनका नाम बहुत सुना था और देखने की इच्छा थी। गॉडमदर, दामुल,गाइड… और भी बहुत पर अभी यहाँ सिर्फ दो ही की बात करना मुनासिब समझता हूँ, हो सकता है कि फिलहाल देखी हुई सभी फिल्मों में से इन दोनों से मैं थोडा प्रभावित हुआ हूँ या ये भी हो सकता है कि कंही मेरी उम्मीद इनसे बहुत ज्यादा थी। खैर जो भी हो यहाँ हम अब शुरू भी करते हैं क्यूंकि भारत में दर्शन तो कोई भी पढ़-पढ़ा सकता है।

बात करते हैं विजय आनंद की गाइड और प्रकाश झा की दामुल की। दोनों कहानियों में पूरे बीस साल का फर्क है जैसे पूरी पीढ़ी ही बदल गयी हो लेकिन फ़िल्में उतनी बदली नज़र नहीं आई। बात शुरू करते हैं गाइड से, पता नहीं क्यों मुझे इस फिल्म का क्लाइमेक्स कुछ अटपटा सा लगा ये समझ से परे लगता है कि नायक क्या कहना चाहता है, वो लोगों को जीने का फलसफा बता रहा है या उनके अन्धविश्वास को बढ़ा रहा है। अब चाहे तो कुछ लोग आक्षेप लगा सकते हैं कि मेरी समझ कम है किन्तु यहाँ पूरी फिल्म गुजरने के बाद लगता है कि मनुष्य को मोक्ष कैसे प्राप्त करना है यही बताया गया हो लेकिन रास्ता क्या है-अन्धविश्वास का। गाइड में किसान सूखे से मर रहा है और यहाँ नायक उनके नाम पर अपने मोक्ष का रास्ता तैयार कर रहा है। गाइड का दौर वो था जब देश घिरा था युद्ध की त्रासदी से और खुद देश का प्रधानमंत्री उपवास की अपील कर रहा था लेकिन वो बात कम से कम तार्किक थी अन्धविश्वासी नहीं। पर यहाँ उपवास के मायने कुछ और नज़र आते हैं, जिस बात का मुझे बुरा लगा कि क्या वाकई उस दौर में भारतीय नायक इतना कमजोर था की लोगों की आस्था के सामने उसका समझाना, जगाना और तर्क करना बेमानी था। वो बात अलग है कि अब हमारा नेतृत्व कुतर्क ही करता है पर चलो तब कम से कम किसान के पास आस्था और अन्धविश्वास का सहारा था ये संदेसा हम तक फिल्म से पहुँच जाता है।
अब कहानी को मैं भी सीरियल किलर की तरह बीस साल आगे धकेल के दामुल पर पहुँचता हूँ। तुलना तो मैं दोनों की नहीं करने वाला हूँ क्यूंकि दोनों का समय और कहानी अलग है, बस अपनी ही बात है जो कहनी है। दामुल में हमारा नायक थोडा सधा नजर आता है हो सकता है ये उस दौर का असर हो क्यूंकि 65 में हम नौसिखिये थे लेकिन 85 में तो हम बाप हो गए। लेकिन यहाँ नायक मजबूर किसान है जहाँ गाइड का किसान अन्धविश्वास का सहारे पर जिंदा है वंही हमारे पुनाई का बेटा थोडा यथार्थ में जीता है तभी तो चोरी से लेकर मर्डरवा तक कर देता है सब कर्जा के चक्कर में, वो भी वो जो वो लिया ही नहीं। किसान परेशान यहाँ भी है लेकिन वो अंत तक आते-आते कम से लड़ने की सोचता है ये अच्छा लगा न कि भगवान और भाग्य विधाता के भरोसे में खड़ा जन-गण बना रहता है वो बात अलग है कि किसान अब बीस साल बाद भी जूझ ही रहा होता है, हाँ हमारी तरक्की इतनी हो जाती है कि बाढ़, सूखे से मरने वाले किसान को हम अब क़र्ज़ से भी मारने पे तुले होते हैं और भगवान नाम का सहारा भी छीन चुके होते हैं।
वैसे आज इन बातों का कोई मतलब तो नहीं बनता क्यूंकि ज़माना चिल्ला रहा है कि वो बदल गया है, बस बदला नहीं तो बाढ़-सूखा और कर्जा। पर मेरे चिल्लाने से भी क्या बदलने वाला है बस मिअन तो कुछ कह रहा था तो कह दिया।