शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

छोटे शहरों को ज़िंदा करता मसान

 मुझे इस बार कोई और शीर्षक नहीं सूझा, वजह साफ़ है कि इस फिल्म की आत्मा में वो छोटा शहर है जो मुख्यधारा से कटता जा रहा है और यूंही किसी घाट पर अपनी जिंदगी में नयी किरण ढूंढ रहा है, ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के किरदार दीपक और देवी अपनी पुरानी यादों को गंगा जी में बहाकर एक नाव में शायद किसी नए कल की तलाश में चल पड़ते हैं।

 अब मैं इस फिल्म की तारीफ ज्यादा करूँगा तो इस इल्ज़ाम को भी झेलना होगा कि भई अवार्ड जीती हुई फिल्म है तो तारीफ तो करेंगे ही जनाब ! तो फिल्म के बारे में समीक्षात्मक बातें बाद में करते हैं पहले इस पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं कि फिल्म प्रभावित क्यों करती है ?

'दम लगा के हईशा' का एक दृश्य
 लंबे समय से मीडिया और फिल्मों से देश के छोटे शहर गायब थे,  सब कुछ महानगरों तक सीमित हो रहा था फिर वो चाहे समाचार हों, टीवी के धारावाहिक या फ़िल्में। लेकिन अगर आप पिछले दिनों आई कुछ फिल्मों को देखें मसलन 'तनु वेड्स मनु' के दोनों संस्करण और 'दम लगा के हईशा', इनमें खांटी देसीपन की खुशबू है। ये उस भारत से भी परिचय कराती हैं, जो छोटे शहरों में बसता है और उनकी भी एक आत्मा है।

 'मसान' इसी कड़ी को और आगे ले जाती है। ये उन छोटे शहरों को ज़िंदा करती है, जहाँ सेक्स अभी भी एक जिज्ञासा है और प्यार की पींगे अपने शहर से दूर जाकर बढ़ाई जाती हैं, वो भी किसी दोस्त की बाइक उधार लेकर या यह उन शहरों की भी कहानी है जहाँ फेसबुक और स्मार्टफोन जैसे सूचना क्रांति के वाहक अपनी पहुँच बना रहे हैं और लोग उनका इस्तेमाल सीख रहे हैं या जहाँ की भ्रष्टाचार से परेशान जनता समाचारों की सुर्खियां नहीं है ।

 वैसे हमारे महानगरों में भी आपको कई छोटे शहर मिल जायेंगे, कभी दिल्ली में ही लक्ष्मी नगर, सीमापुरी, शाहदरा, नवादा, रघुबीर नगर और जामा मस्जिद के पास के इलाके घूम आइये, खुदबखुद दर्शन हो जायेंगे छोटे-छोटे कई शहरों के।

 'मसान' की कहानी की चर्चा यहाँ नहीं करना बेहतर जान पड़ता है मुझे क्योंकि मैं नहीं चाहता कि अगर अभी जो लोग फिल्म देखने जाने वाले हैं वो मेरी धारणा को लेकर जाएँ मन में, लेकिन सन्दर्भ के लिए बस इतना बता देता हूँ कि कहानी में एक नायिका है देवी पाठक और एक नायक है दीपक कुमार लेकिन इन दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं।

 दोनों किरदारों की अपनी अलग-अलग कहानियां है, दोनों के जीवन में  संयोग और वियोग रस का श्रृंगार हैं। दोनों के जीवन में खलनायक है उनका 'डर" जो उन्हें समाज से , जाति से , जाति के आधार पर बंटे काम के भेदभाव से , ऊंच-नीच से  और पुलिस से है।  केवल एक चीज उन्हें जोड़ती है और वो हैं बनारस की गंगा पर बने घाट और उन पर बने मसान, जहाँ उनका प्रेम धू-धू करके खाक में मिल जाता है और जब इसी मसान-तट पर वो अपने डर से पार पातें हैं तो उम्मीद की किरण उन्हें साथ ले जाती है।

 फिल्म की जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो है इसके अधूरेपन का संपूर्ण होना। ये जहाँ से शुरू होती है उसका कोई बैकग्राउंड नहीं और जहाँ खत्म होती है उसके आगे ये अनंत है। अंग्रेजी में इसका नाम 'फ्लाई अवे सोलो' है जो बताता है कि मसान से आगे का रास्ता इंसान अकेले ही धुंए में उड़कर करता है।

 निर्देशक नीरज घेवन की यह पहली फिल्म है और कान्स समारोह में अवार्ड जीतने के बाद भारत में रिलीज हुई है। फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतर है लेकिन कैमरा का काम और बेहतर किया जा सकता था। फिल्म के तीन गाने इंडियन ओसियन के रंग में रंगे हैं और तीन अलग-अलग मूड्स को दिखाते हैं, हालांकि यह अच्छा ही किया कि 'भोर' गाने को फिल्म के अंत में रखा क्यूंकि मध्य में यह फिल्म को भारी बना देता।

 फिल्म में देवी का किरदार ऋचा चड्ढा ने निभाया है और उनके पिता के किरदार में हैं संजय मिश्रा। इन दोनों कलाकारों से बेहतर अभिनय की उम्मीद की जाती है और दोनों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। हालांकि ऋचा पूरी तरह से बनारस के रंग में नहीं रंग पाती हैं।

 दीपक का किरदार निभाने वाले नवोदित अभिनेता विकी कौशल निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं। ज़रा सोचकर देखिये कि एक अभिनेता के लिए कितना मुश्किल होता होगा कि वह बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर वह मुर्दों को जला रहा है, एक ऐसा काम जो उसने शायद ही कभी किया हो, लेकिन उसके अभिनय में कोई झिझक या शिकन न दिखे, ऐसा ही विकी का अभिनय है।

 फिल्म में बनारस एवं  गंगा के घाटों पर चली आ रही दहन की परम्परा भी एक किरदार है।  काशी विश्वनाथ और गंगा आरती को दिखाए बिना भी फिल्म की हर रग में बनारस मौजूद है। तो बस देख आइये एक बार 'मसान', क्योंकि अगर अच्छा देखने में यकीन रखते हैं तो ये आपको निराश नहीं करेगी।

सोमवार, 27 जुलाई 2015

चूहे नहीं "काबा" हैं ये : करणी माता मंदिर देशनोक

 हाल में कुछ समय मिला तो बस उठाया अपना बस्ता और निकल पड़े बीकानेर की ओर साथ में बचपन के एक साथी को भी ले लिया।

 सुबह-सुबह स्टेशन पर उतरते ही सबसे पहले हमने देशनोक का टिकट लिया। कई साल पहले जब ' आई एम कलाम ' फिल्म देखी थी,  तब से मैं वहां जाने को लेकर उत्सुक था।

करणी मंदिर का मुख्य द्वार
 यहाँ पर प्रसिद्ध करणी माता का मंदिर है, राजस्थान से बाहर के लोग इसे ' चूहों वाले मंदिर ' के तौर पर जानते हैं। आस-पास जानकारी करने पर पता चला कि करणी माता चारण समुदाय (चरवाहा) समुदाय में जन्मी थीं, इसलिए चारण समुदाय के लोगों में इस मंदिर की बहुत मान्यता है। नवरात्रों में यहाँ मेला लगता है तब बड़ी संख्या में लोग यहाँ जुटते हैं।

 इस मंदिर की खास बात है कि यहाँ आपको हर जगह चूहे नजर आएंगे। दूध पीते, प्रसाद खाते , लड्डू खाते, चौखटों पर, दालान में और सीढ़ियों पर हर जगह बस चूहे ही नजर आएंगे। इन्हें यहाँ के लोग ' काबा ' कहते हैं।

मंदिर में दूध पीते "काबा"
 माना जाता है कि मंदिर में सात सफ़ेद काबा भी हैं जो नसीब वालों को ही दिखते हैं। खैर मैंने भी डेढ़ घंटे किस्मत आजमाई लेकिन "सफ़ेद काबा" मेरे नसीब में नहीं।

 मैं कुछ और ज्यादा जानना चाहता था तो मैं यहाँ स्थित पुराने मंदिर की ओर गया। इस पुराने मंदिर में एक गुफा जैसी एक जगह है जिसके बारे में कहा जाता है कि करणी माता की मूर्ति यंही प्रकट हुई थी और बाद में उसे नए मंदिर में स्थापित कर दिया गया। वर्तमान में जो नया मंदिर देशनोक स्टेशन के पास है, उसे बीकानेर के महाराज गंगा सिंह ने बनवाया था।

माना जाता है कि इसी स्थान
पर करणी माता प्रकट हुई थीं
नए मंदिर का दरवाजा राजपूत-मुग़ल शैली में सफ़ेद संगमरमर से बना है, जिस पर कई देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। पहली झलक में यह बेल-बूटों से सुसज्जित द्वार लगेंगे लेकिन जनाब जरा गौर से देखना इन्हें, इन बेल-बूटों के बीच में आपको प्रकृति  के कई जीव नजर आएंगे।

 पुराने मंदिर के पुजारी ने बताया कि इस मंदिर में देवी की जो मूर्ति है उसमें त्रिशूल बांयें हाथ में है और यह भारत का इकलौता ऐसा मंदिर है जिसमें किसी देवी के बांयें हाथ में त्रिशूल है। यहां पुराने मंदिर में लगे पेड़ को भी वो करीब 700 साल पुराना बताते हैं। अब मैंने भी उनकी बात मान ली, क्योंकि मैं उसका कोई वैज्ञानिक परीक्षण नहीं कराने वाला था।
संगमरमर पर उकेरा गया गिरगिट, सांप

 एक और रोचक बात मुझे जो पुजारी ने बताई, वो यह कि अगर किसी के पैरों में आकर कोई चूहा यहाँ मर जाए तो उसे चांदी या सोने का चूहा चढ़ावे में देना होता है। मरे हुए चूहे का मंदिर में सफाई करने वाले लोग सम्पूर्ण विधि-विधान के साथ अंतिम संस्कार कर देते हैं। यहाँ मंदिर में चूहों की सुरक्षा के लिए पूरे दालान को जाल से ढका गया है ताकि कोई पक्षी उन्हें उठाकर ना ले जाए।

करणी माता के पुराने मंदिर का विग्रह
 वैसे पुजारी ने यह भी बताया कि यहाँ रोज कई चूहे मरते हैं, लेकिन अगर वो किसी के पैर के नीचे आकर मरते हैं तो ही बहुमूल्य धातु का चूहा चढ़ाना पड़ता है। गनीमत समझो कि हम दोनों के पैर के नीचे कोई चूहा नहीं आया।

 करणी माता के दोनों मंदिरों में हजारों चूहे आपको मिलेंगे। लोग इन्हें प्रसाद चढ़ाते हैं, इनका झूठा खाते-पीते हैं। यहाँ के लोग इन काबाओं को बहुत पवित्र मानते हैं। यहाँ आस-पास लोगों से बात करने पर पता चला कि चूहों का झूठा खाने-पीने के बावजूद आजतक देशनोक ने कोई बीमारी नहीं हुई और ना ही कभी प्लेग फैला। इतना ही नहीं कई वैज्ञानिक भी यहाँ आकर इस अचंभित कर देने वाली घटना की जांच कर चुके हैं लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं आया।
मंदिर में 700 साल पुराना पेड़

 यहाँ की लोक कथाओं के अनुसार यहां मंदिर में मरने वाले काबा का अगला जन्म इंसान के रूप में होता है और वो चारण समुदाय में पैदा होता है। खैर विकिपीडिया (https://en.wikipedia.org/wiki/Karni_Mata_Temple) पर इस बारे में एक और लोक कथा का वर्णन है लेकिन हमारी यात्रा के दौरान हमें  किसी ने इस  बारे में नहीं बताया।

 फ़िलहाल ये यात्रा यहीं समाप्त नहीं हुई। बीकानेर की गलियों से और भी बहुत कुछ आना बाकी है, देशनोक से बीकानेर वापस तो पहुँचने दीजिये जनाब !

पुराने मंदिर का मनोहारी दृश्य,
इसमें ऊपर लगे सुरक्षा जाल को देखा जा सकता है

मंगलवार, 7 जुलाई 2015

क्या मानें इसे सम्मान या उपकार ?

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस निश्चित रूप से भारत की 'सॉफ्ट डिप्लोमेसी' का शानदार उदाहरण है, लेकिन क्या इसके सिर्फ इतने ही निहितार्थ हैं ?

मुझे लगता है कि इसको थोड़ा व्यापक रूप में देखना चाहिए। यह बात सभी जानते हैं कि बाबा रामदेव ने चुनावों में भाजपा के पक्ष में खुला प्रचार किया था। सरकार ने उन्हें कई तरह से अनुग्रहीत  करने का प्रयास किया जैसे कि पहले पद्म


पुरस्कार से नवाजना चाहा, फिर बाद में उन्हें हरियाणा में कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिए जाने की भी बात हुई लेकिन रामदेव बाबा ने इसे स्वीकार करने से इंकार कर दिया।

देखा जाये तो यह सही भी है, अब कारोबारी इंसान को तमगों का क्या करना ? उसे तो अपने कारोबार से मतलब है। योग दिवस इसे भुनाने का सबसे सही तरीका है। सरकार ने योग दिवस के माध्यम से रामदेव का ही फायदा कराया है। इस वजह से उन्हें बिना धेला खर्च किये अंतर्राष्ट्रीय प्रचार मिल गया।

योग दिवस के मनाये जाने से इसकी वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ेगी तो उसका व्यापार भी बढ़ेगा और विश्वभर में इसके कारोबार में लगे लोगों को लाभ पहुंचेगा। बाबा रामदेव के लगभग 1100 करोड़ के पतंजलि समूह के लिए इससे बेहतर अवसर क्या हो सकता है। चूँकि वो इस कारोबार के पुराने खिलाड़ी हैं लिहाजा उसका फायदा उन्हें मिलेगा ही। एक अनुमान के मुताबिक अकेले अमेरिका में ही योग का कारोबार लगभग 27 अरब अमेरिकी डॉलर का है। अब उसमें से रामदेव बाबा कितना हिस्सा अपने नाम जुटाते हैं ये देखना होगा ?  इसके अलावा देश में भी इसका कारोबार बढ़ेगा तो रामदेव और अन्य योग बाबाओं का तो राजयोग आने वाला है।

लेकिन यह बात भी मौजूं है कि संयुक्त राष्ट्र ने इसे मान्यता कैसे दी ? ठीक है मान लेते है कि भारतीय राजदूत ने इसके लिए काफी लॉबिंग की होगी और खुद प्रधानसेवक भी इसके लिए लॉबिंग कर आये थे वहां जाकर लेकिन क्या लॉबिंग ही काफी थी ? अगर ऐसा होता तो कई सालों से संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्य बनने के लिए लॉबिंग  कर रहे भारत का ये सपना भी साकार हो जाता।

मैं इसे थोड़े व्यापक रूप में देखता हूँ। ये बात किसी से छिपी नहीं संयुक्त राष्ट्र किन देशों के प्रभाव में कार्य करता है। इन देशों को चीन के अलावा अपने व्यापारिक हितों की पूर्ति के लिए एक नया स्थान चाहिए और भारत इसके लिए सबसे मुफीद जगह है।

जिस तरह चीन विश्व राजनीति में दखल बढ़ा रहा है, साफ़ है पुरानी ताकतें उसे कुछ थामना जरूर चाहती हैं।ऐसा उसके विश्व व्यापार को प्रभावित करके किया जा सकता है और इस काम में उनका साथ देने के लिए भारत की नयी सरकार ने लाल कालीन बिछा रखा है। ऐसे में इस तरह के एक दो झुनझुने थमाने से उनका कुछ जायेगा नहीं और हम अपने मुंह मियां मिट्ठू बन लेंगे।

वैसे भी किसी धनवान को असल से ज्यादा सूद प्यारा होता है ऐसे में बस वो नए निवेश के रास्ते तलाशता रहता है ताकि सूद आता रहे।  तो ऐसे ही देसी और वैश्विक धनवानों को फायदा पहुँचाने के लिए इस तरह के आयोजन होते रहते हैं।