मुझे इस बार कोई और शीर्षक नहीं सूझा, वजह साफ़ है कि इस फिल्म की आत्मा में वो छोटा शहर है जो मुख्यधारा से कटता जा रहा है और यूंही किसी घाट पर अपनी जिंदगी में नयी किरण ढूंढ रहा है, ठीक वैसे ही जैसे फिल्म के किरदार दीपक और देवी अपनी पुरानी यादों को गंगा जी में बहाकर एक नाव में शायद किसी नए कल की तलाश में चल पड़ते हैं।
अब मैं इस फिल्म की तारीफ ज्यादा करूँगा तो इस इल्ज़ाम को भी झेलना होगा कि भई अवार्ड जीती हुई फिल्म है तो तारीफ तो करेंगे ही जनाब ! तो फिल्म के बारे में समीक्षात्मक बातें बाद में करते हैं पहले इस पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं कि फिल्म प्रभावित क्यों करती है ?
लंबे समय से मीडिया और फिल्मों से देश के छोटे शहर गायब थे, सब कुछ महानगरों तक सीमित हो रहा था फिर वो चाहे समाचार हों, टीवी के धारावाहिक या फ़िल्में। लेकिन अगर आप पिछले दिनों आई कुछ फिल्मों को देखें मसलन 'तनु वेड्स मनु' के दोनों संस्करण और 'दम लगा के हईशा', इनमें खांटी देसीपन की खुशबू है। ये उस भारत से भी परिचय कराती हैं, जो छोटे शहरों में बसता है और उनकी भी एक आत्मा है।
'मसान' इसी कड़ी को और आगे ले जाती है। ये उन छोटे शहरों को ज़िंदा करती है, जहाँ सेक्स अभी भी एक जिज्ञासा है और प्यार की पींगे अपने शहर से दूर जाकर बढ़ाई जाती हैं, वो भी किसी दोस्त की बाइक उधार लेकर या यह उन शहरों की भी कहानी है जहाँ फेसबुक और स्मार्टफोन जैसे सूचना क्रांति के वाहक अपनी पहुँच बना रहे हैं और लोग उनका इस्तेमाल सीख रहे हैं या जहाँ की भ्रष्टाचार से परेशान जनता समाचारों की सुर्खियां नहीं है ।
वैसे हमारे महानगरों में भी आपको कई छोटे शहर मिल जायेंगे, कभी दिल्ली में ही लक्ष्मी नगर, सीमापुरी, शाहदरा, नवादा, रघुबीर नगर और जामा मस्जिद के पास के इलाके घूम आइये, खुदबखुद दर्शन हो जायेंगे छोटे-छोटे कई शहरों के।
'मसान' की कहानी की चर्चा यहाँ नहीं करना बेहतर जान पड़ता है मुझे क्योंकि मैं नहीं चाहता कि अगर अभी जो लोग फिल्म देखने जाने वाले हैं वो मेरी धारणा को लेकर जाएँ मन में, लेकिन सन्दर्भ के लिए बस इतना बता देता हूँ कि कहानी में एक नायिका है देवी पाठक और एक नायक है दीपक कुमार लेकिन इन दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं।
दोनों किरदारों की अपनी अलग-अलग कहानियां है, दोनों के जीवन में संयोग और वियोग रस का श्रृंगार हैं। दोनों के जीवन में खलनायक है उनका 'डर" जो उन्हें समाज से , जाति से , जाति के आधार पर बंटे काम के भेदभाव से , ऊंच-नीच से और पुलिस से है। केवल एक चीज उन्हें जोड़ती है और वो हैं बनारस की गंगा पर बने घाट और उन पर बने मसान, जहाँ उनका प्रेम धू-धू करके खाक में मिल जाता है और जब इसी मसान-तट पर वो अपने डर से पार पातें हैं तो उम्मीद की किरण उन्हें साथ ले जाती है।
फिल्म की जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो है इसके अधूरेपन का संपूर्ण होना। ये जहाँ से शुरू होती है उसका कोई बैकग्राउंड नहीं और जहाँ खत्म होती है उसके आगे ये अनंत है। अंग्रेजी में इसका नाम 'फ्लाई अवे सोलो' है जो बताता है कि मसान से आगे का रास्ता इंसान अकेले ही धुंए में उड़कर करता है।
निर्देशक नीरज घेवन की यह पहली फिल्म है और कान्स समारोह में अवार्ड जीतने के बाद भारत में रिलीज हुई है। फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतर है लेकिन कैमरा का काम और बेहतर किया जा सकता था। फिल्म के तीन गाने इंडियन ओसियन के रंग में रंगे हैं और तीन अलग-अलग मूड्स को दिखाते हैं, हालांकि यह अच्छा ही किया कि 'भोर' गाने को फिल्म के अंत में रखा क्यूंकि मध्य में यह फिल्म को भारी बना देता।
फिल्म में देवी का किरदार ऋचा चड्ढा ने निभाया है और उनके पिता के किरदार में हैं संजय मिश्रा। इन दोनों कलाकारों से बेहतर अभिनय की उम्मीद की जाती है और दोनों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। हालांकि ऋचा पूरी तरह से बनारस के रंग में नहीं रंग पाती हैं।
दीपक का किरदार निभाने वाले नवोदित अभिनेता विकी कौशल निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं। ज़रा सोचकर देखिये कि एक अभिनेता के लिए कितना मुश्किल होता होगा कि वह बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर वह मुर्दों को जला रहा है, एक ऐसा काम जो उसने शायद ही कभी किया हो, लेकिन उसके अभिनय में कोई झिझक या शिकन न दिखे, ऐसा ही विकी का अभिनय है।
फिल्म में बनारस एवं गंगा के घाटों पर चली आ रही दहन की परम्परा भी एक किरदार है। काशी विश्वनाथ और गंगा आरती को दिखाए बिना भी फिल्म की हर रग में बनारस मौजूद है। तो बस देख आइये एक बार 'मसान', क्योंकि अगर अच्छा देखने में यकीन रखते हैं तो ये आपको निराश नहीं करेगी।
अब मैं इस फिल्म की तारीफ ज्यादा करूँगा तो इस इल्ज़ाम को भी झेलना होगा कि भई अवार्ड जीती हुई फिल्म है तो तारीफ तो करेंगे ही जनाब ! तो फिल्म के बारे में समीक्षात्मक बातें बाद में करते हैं पहले इस पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं कि फिल्म प्रभावित क्यों करती है ?
'दम लगा के हईशा' का एक दृश्य |
'मसान' इसी कड़ी को और आगे ले जाती है। ये उन छोटे शहरों को ज़िंदा करती है, जहाँ सेक्स अभी भी एक जिज्ञासा है और प्यार की पींगे अपने शहर से दूर जाकर बढ़ाई जाती हैं, वो भी किसी दोस्त की बाइक उधार लेकर या यह उन शहरों की भी कहानी है जहाँ फेसबुक और स्मार्टफोन जैसे सूचना क्रांति के वाहक अपनी पहुँच बना रहे हैं और लोग उनका इस्तेमाल सीख रहे हैं या जहाँ की भ्रष्टाचार से परेशान जनता समाचारों की सुर्खियां नहीं है ।
वैसे हमारे महानगरों में भी आपको कई छोटे शहर मिल जायेंगे, कभी दिल्ली में ही लक्ष्मी नगर, सीमापुरी, शाहदरा, नवादा, रघुबीर नगर और जामा मस्जिद के पास के इलाके घूम आइये, खुदबखुद दर्शन हो जायेंगे छोटे-छोटे कई शहरों के।
'मसान' की कहानी की चर्चा यहाँ नहीं करना बेहतर जान पड़ता है मुझे क्योंकि मैं नहीं चाहता कि अगर अभी जो लोग फिल्म देखने जाने वाले हैं वो मेरी धारणा को लेकर जाएँ मन में, लेकिन सन्दर्भ के लिए बस इतना बता देता हूँ कि कहानी में एक नायिका है देवी पाठक और एक नायक है दीपक कुमार लेकिन इन दोनों का आपस में कोई संबंध नहीं।
दोनों किरदारों की अपनी अलग-अलग कहानियां है, दोनों के जीवन में संयोग और वियोग रस का श्रृंगार हैं। दोनों के जीवन में खलनायक है उनका 'डर" जो उन्हें समाज से , जाति से , जाति के आधार पर बंटे काम के भेदभाव से , ऊंच-नीच से और पुलिस से है। केवल एक चीज उन्हें जोड़ती है और वो हैं बनारस की गंगा पर बने घाट और उन पर बने मसान, जहाँ उनका प्रेम धू-धू करके खाक में मिल जाता है और जब इसी मसान-तट पर वो अपने डर से पार पातें हैं तो उम्मीद की किरण उन्हें साथ ले जाती है।
फिल्म की जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो है इसके अधूरेपन का संपूर्ण होना। ये जहाँ से शुरू होती है उसका कोई बैकग्राउंड नहीं और जहाँ खत्म होती है उसके आगे ये अनंत है। अंग्रेजी में इसका नाम 'फ्लाई अवे सोलो' है जो बताता है कि मसान से आगे का रास्ता इंसान अकेले ही धुंए में उड़कर करता है।
निर्देशक नीरज घेवन की यह पहली फिल्म है और कान्स समारोह में अवार्ड जीतने के बाद भारत में रिलीज हुई है। फिल्म का स्क्रीनप्ले बेहतर है लेकिन कैमरा का काम और बेहतर किया जा सकता था। फिल्म के तीन गाने इंडियन ओसियन के रंग में रंगे हैं और तीन अलग-अलग मूड्स को दिखाते हैं, हालांकि यह अच्छा ही किया कि 'भोर' गाने को फिल्म के अंत में रखा क्यूंकि मध्य में यह फिल्म को भारी बना देता।
फिल्म में देवी का किरदार ऋचा चड्ढा ने निभाया है और उनके पिता के किरदार में हैं संजय मिश्रा। इन दोनों कलाकारों से बेहतर अभिनय की उम्मीद की जाती है और दोनों ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है। हालांकि ऋचा पूरी तरह से बनारस के रंग में नहीं रंग पाती हैं।
दीपक का किरदार निभाने वाले नवोदित अभिनेता विकी कौशल निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं। ज़रा सोचकर देखिये कि एक अभिनेता के लिए कितना मुश्किल होता होगा कि वह बनारस के हरिश्चंद्र घाट पर वह मुर्दों को जला रहा है, एक ऐसा काम जो उसने शायद ही कभी किया हो, लेकिन उसके अभिनय में कोई झिझक या शिकन न दिखे, ऐसा ही विकी का अभिनय है।
फिल्म में बनारस एवं गंगा के घाटों पर चली आ रही दहन की परम्परा भी एक किरदार है। काशी विश्वनाथ और गंगा आरती को दिखाए बिना भी फिल्म की हर रग में बनारस मौजूद है। तो बस देख आइये एक बार 'मसान', क्योंकि अगर अच्छा देखने में यकीन रखते हैं तो ये आपको निराश नहीं करेगी।