बुधवार, 22 जून 2016

आम की गुठली

 बचपन में मुझे गर्मी का बेसब्री से इंतज़ार रहता था। इसकी वजह भी साफ थी। गर्मियों की छुट्टी मिला करती थी तो नानी के घर जाया करते थे। मेरा जन्मदिन भी इसी मौसम में पड़ता है तो वो आमतौर पर नानी के घर पर ही मना करता।  उस दिन नानाजी मेरे लिए छोले जरूर बनाते क्योंकि मुझे उनके हाथ के बने छोले बड़े पसंद थे। लेकिन घर के बाकी लोगों को उनके हाथ का आमरस।
स्रोत-मेरी रसोई से...


 नानी के घर पर गर्मियों में रोजाना दूध की रबड़ी वाला आमरस बनता था जो मुझे तब पसंद नहीं था लेकिन माँ थोड़ा बहुत डांट-डपट के खिला ही देती। लेकिन जन्मदिन के दिन मैं राजा, बाकी सब प्रजा। उस दिन मेरे लिए रबड़ी अलग होती और आम अलग से काट के मुझे दिया जाता।

 मुझे आम बहुत पसंद है। गर्मियों में पहली बार मुझे आम हमेशा नानाजी के घर पहुंचने के बाद ही मिलता था, क्योंकि घर पर मुझे तब तक आम खाने को नहीं मिलते जब तक बारिश नहीं हो जाती। इसके लिए माँ-पापा दोनों से सख्त हिदायत मिली हुई थी लेकिन नानी के घर आपको बारिश हो या न हो टोकने वाला कौन था? वैसे घर पर आम खाने की मनाही इसलिए थी क्योंकि मुझे शरीर पर दाने या फुंसियां निकल आती थी। अब ये बात और है कि मुझे आज तक आम और शरीर के दानों के बीच का कनेक्शन पता नहीं चला। मैंने जानने की कोशिश भी नहीं की क्योंकि इससे यादें मिट जाने का डर लगा रहता है। 

 मैं आम का बहुत बड़ा लालची हूँ। तभी पिछले साल जब ऑफिस की एक साथी ने मुझे दोस्तों के साथ बाँटने के लिए अपने घर के आम दिए तो मैंने घर पहुँच के सबसे बढ़िया दो आम सबसे पहले अकेले ही खा लिए बाद में दोस्तों को बताया कि उनके लिए आम आएं हैं।
साभार - गूगल इमेजेस

 बचपन में भी घर पर मुझे जब तक आम खाने की मनाही होती थी तब तक मैंगो शेक मिला करता था। मैंगो शेक के लिए आम काटने के बाद हमेशा आम की गुठली बच जाती थी। मुझे आम पसंद था लेकिन आम की गुठली कतई नहीं। मैं गुठली हमेशा मैं छोटे भाई को सरका देता था और खुद छिलकों में लगे हुए आम से संतोष कर लेता।

 कई बार मुझे जब मैंगो शेक के लिए आम छीलने को कहा जाता तो मैं जानबूझकर छिलका मोटा छीलता क्योंकि बाद में वो छिलके तो मुझे मिलने थे। इसी बहाने बारिश से पहले घर में आम खाने को भी मिल जाते। खैर इस बात के लिए कई बार माँ की झिड़की भी लग जाती कि ठीक से छीलना है तो छीलो नहीं तो रसोई से नौ दो ग्यारह हो जाओ। फिर बचती आम की गुठली और वो भी मैं भाई को दे देता।

 इस साल करीब पांच-छह साल बाद ऐसा हुआ कि मैं और छोटा भाई गर्मियों के मौसम में एक साथ हैं। इसलिए आज जब मैं आमरस बना रहा था तो छिलका मैंने मोटा छीला और भाई ने मुझे पकड़ लिया। फिर वही बचपन वाली धमकी कि माँ से शिकायत करें। लेकिन अब वो डर नहीं कि माँ डांटेगी क्योंकि फ़ोन पर उसने डांटना बंद कर दिया है। फिर आज उसके बाद भाई को आम की गुठली खाने के लिए बचपन वाले जाल में फंसाना और मेरा छिलकों में लगे आम को अंजाम देना।

 लेकिन अब भाई सयाना हो गया तो आम की गुठली के जाल में फंसता नहीं और आजकल आम में भी इतना गूदा या रस कहाँ कि उसे छिलकों या आम की गुठली से चुराया जाये।

सोमवार, 20 जून 2016

राजाराम के साथ चाय पर चर्चा

स्रोत - गूगल इमेजेस

 अरे नहीं-नहीं, मैं स्वर्ग में भगवान राम से भेंट करके नहीं लौटा हूँ। वैसे भी मैं उधर जा ही नहीं सकता क्योंकि उसका लाइसेंस तो "भक्तों" के पास है। मैं तो हाल में ग्वालियर की यात्रा पर गया था तो वहां रास्ते में मेरी चप्पल टूट गयी। मैं उसे सुधरवाने जिस "चप्पलों के डॉक्टर" के पास गया था, बस उनका नाम राजाराम है।

 अब वहां बाजार में वो अकेले थे और काम का ढेर भरा, बस फिर क्या था हमने पकड़े चाय के तीन गिलास और उनमें से एक थमा दिया राजाराम जी को और वंही टेक लगा के बैठ गए, तो बस यह ब्यौरा है उनके साथ हुई चाय पर चर्चा का...

"अरे साब इस चाय की क्या जरुरत थी, आप क्यों ले आये, पहले बोला होता तो हम ही मंगा देते।"
"अरे नहीं चाचा, मेरा मन था पीने का तो ले आये, आप बस चाय पियो और अच्छे से सिलाई करना।"
"आप निश्चिन्त रहें, एकदम मजबूत काम करके देंगे, 25 साल से यही काम तो कर रहे हैं।"
"अरे फिर तो आपका तजुर्बा मेरी उम्र से ज्यादा है, तो चाचा आप यंही ग्वालियर के हैं या बाहर से आकर बसे।"
"नहीं साहब, मैं तो यंही का हूँ, बस बाहर कुछ दिन काम करने गया था लेकिन मन नहीं लगा सो वापस यंही आ गया।"

 अब तक राजाराम जी अपनी चाय खत्म करने के करीब पहुंचे थे कि तभी दो और ग्राहक अपनी चप्पल उन्हें दे गए। उन्हें बहुत अर्जेंट चाहिए थी तो चाचा ने तसल्ली भरी निगाहों से मेरी तरफ देखा, मैं तो आया ही समय काटने था तो मैंने भी सहमति दी कि चाचा निपटा लीजिए। चाचा ने चप्पल में कील ठोकी और ग्राहकों से पैसे लेकर उन्हें चलता किया। तब तक मैं भी फ़ोन पर किसी से बात निपटा रहा था फिर जब मैं निपट चुका तो देखा चाचा के हाथ में सफ़ेद धागा था जिसे वो मोम से रगड़ रहे थे।

"अरे निपट गए।"
"हाँ दो कील ही ठोकना था, अब आपका काम ही निपटाएंगे।"
"चलो ठीक है। अच्छा एक बात बताओ कि मैं यहाँ से किला (ग्वालियर का) जाना चाहता हूँ तो कैसे जाऊं।"
"किले के लिए तो सबसे नजदीक उरवाई गए पड़ेगा, यंही से टम्पू मिल जायेगा तो उस से चले जाना।"
"और चाचा यहाँ चौहान साब कैसा काम कर रहे।"
"साब काम तो सबई करते हैं लेकिन अपने को फायदा हो तब कछु समझें।"
"मतलब"
"अरे साब देखो अपन को काम से का लेना देना, अपन को तो रोटी सस्ती चाहिए बस।"
"लेकिन चाचा अब तो सब बढ़िया है, ऐसा ही सुना है।"
"सब सुना ही है ना, हो रहा हो तो बताओ। अब आप तो दिल्ली से आये हैं आप ही बताओ कि वहां वो केजरीवाल कौनो काम कर रहा।"
"अरे चाचा उसे काम करने कहाँ दे रहे लोग।"
"साब ये तो कोरी कोरी बात है। असल बात बताओ।"
"असल में तो मैं बता ही नहीं सकता क्योंकि मेरा वास्ता उससे या उसके काम से पड़ा नहीं।"
"ऐसा ही यहाँ है साब चौहान साब के काम से हमारा वास्ता पड़ा ही नहीं।"

 इसके बाद मेरे पास कोई जवाब नहीं था और न ही बहस बढ़ाने की कोई वजह क्योंकि चाचा ने मुझे एक ही पंक्ति में चुप करा दिया था। फिर मैंने सोचा कि क्यों न मोदी जी (नरेंद्र) का जिक्र छेड़ा जाये, शायद चाचा उनके बारे में कुछ कहें।

"अच्छा चाचा एक बात बताओ ये मोदी जी कछु करेंगे या नहीं।"
"देखो भाईसाब उनने काम तो बहुत सारे करने की कही थी, लेकिन अभी तो मन की बात ही सुनी है।"
"ये तो मजाक वाली बात हो गयी, असल में आपको क्या लगता है, मोदी जी करेंगे कुछ।"
"अरे साब हम भी अख़बार सुनते हैं, टीवी देखते हैं। आपई बताओ गरीब की सुनै है कौनो।"
"वो तो ठीक है चाचा लेकिन मोदी जी तो बहुत काम करते हैं।"
"देखो साब हम बैठते पटरी पर, और दिन के चार आने कम लेते कि बस रोटी कहकर डरे रहें। अब कौनो सरकार आये, मोदी आये या केजरीवाल आये हमाये लाने सब वैसा का वैसा ही है।"

 इसके बाद चाचा से दो चार बातें और हुई। तब तक मेरी चप्पल भी सिल गयी। उनके साथ इस चाय पर चर्चा का कोई निष्कर्ष तो नहीं निकला लेकिन फिर मेरे दिमाग में एक बात जरूर रह गयी।

 चुनाव, नेता, पार्टी और उनके वादों को लेकर ये गरीब जनता जब इतनी निश्चिन्त है तो वो वोट किस आधार पर देती है और क्यों देती है ? जब वो जानते हैं कि सरकार और पार्टियां कुछ नहीं करेंगी तो वो सरकार में उठापटक क्यों कर देते हैं ? क्यों वो हमेशा इस आस में रहते हैं कि उन्हें कुछ मिलेगा ? क्या यही हमारा संविधान उन्हें अब तक दे पाया है...एक अनोखी सी तसल्ली जिसमें बेचैनी तो है लेकिन छटपटाहट नहीं और उसे दूर करने का जुझारूपन भी नहीं। मैं अभी इन प्रश्नों के जवाब तलाश रहा हूँ, अगर आपको किसी भी एक प्रश्न का जवाब मिले तो बताना... 

बुधवार, 15 जून 2016

आता क्या है तुम्हें...?

आता क्या है तुम्हें ?
जान छिड़कना...
किस पर ?
दोस्त-यार-परिवार...
और काम ?
बिल्कुल इनका कोई भी काम...
इसमें प्रियतमा कहाँ ?
आँखों-सपनों में...
हक़ीक़त में नहीं ?
होती तो वो जान होती...
हम्म!


शुक्रवार, 10 जून 2016

छोटू with छोटू दो अंतिम

पुनः जारी छोटू with छोटू ...
जलीस सर के साथ हमारी यादों की
" जमापूंजी "

 हाँ "पुनः जारी" इसलिए लिखा है क्योंकि "भाषा" में काम करने के दौरान मेरा इससे कई बार वास्ता पड़ा है और "दो अंतिम" इसलिए क्योंकि इस कहानी का अंतिम भाग इसी पोस्ट में समाप्त हो रहा है...

 ऊपर बताये दोनों शब्द युग्म भाषा में हमारे काम अभिन्न हिस्सा हैं। इस पोस्ट का संदर्भ भी ऐसा ही है। यहाँ मैं अपनी पिछली पोस्ट के आगे की कहानी बयां कर रहा हूँ, इसलिए पुनः जारी...

 पिछली पोस्ट मेरे भाषा में आकर छोटू बनने की बात करती है वहीं इस पोस्ट में मेरे भाषा में बड़े होने की कहानी है। भाषा में मेरे इन दोनों परिवर्तनों के साक्षी रहे हैं जलीस सर...

 भाषा में काम के दौरान डेस्क, रिपोर्टिंग इत्यादि कई सारे काम करने का अवसर मिलता है। यहाँ मुझे रिपोर्टिंग पर जाने का जब भी मौका मिलता है तो मैं ख़ुशी से जाता हूँ क्योंकि मुझे रिपोर्टिंग हमेशा से पसंद रही है। जब हम रिपोर्टिंग करके वापस लौटते तो हमें जलीस सर की कड़ी परीक्षा से गुजरना होता, हाँ यह बात अलग है कि उस दौरान कई बार बहुत से रोचक किस्से हमें सुनने को मिल जाते।

 खैर यहाँ बात भाषा में मेरे पहले साल की है, उस साल मुझे यूँ तो राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की रिपोर्टिंग करने का अवसर मिला था लेकिन जब जनवरी में गणतंत्र दिवस परेड की रिपोटिंग में जाने का मौका मिला तो ख़ुशी से फूला न समाया...
"उस दिन सुबह-सुबह छः बजे घर से निकले और परेड स्थल पहुंचे। सैम अंकल ( बराक ओबामा जी ) के आने की वजह से सुरक्षा चौकस थी और बारिश भी हो रही थी। खैर किसी तरह उस दिन हम रिपोर्टिंग करके ऑफिस पहुंचे। गनीमत है कि उस दिन मुझे एक अलग स्टोरी मिल गयी थी और वो यह कि गणतंत्र दिवस पर जिन तोपों से सलामी दी जाती है वो अंग्रेजों के ज़माने की हैं। जब ये स्टोरी लेकर मैं ऑफिस पहुंचा तो जलीस सर खुश हुए और उन्होंने पूरे मन से उसका सम्पादन किया। एक बात उन्होंने मुझसे कही कि मैं बिल्कुल पीटीआई में ही पहले काम कर चुके उमेश उपाध्याय जी की तरह हूँ। उस दिन मुझे ये बात अच्छी लगी लेकिन असल में मैं भाषा में बड़ा हुआ इस घटना के ठीक एक साल बाद।
एक साल बाद फिर से 26 जनवरी की रिपोर्टिंग करने जाना था। इस बार किसी गड़बड़ी की वजह से प्रेस विंग में बैठने की जगह नहीं मिल पायी थी तो हम आम जनता के बीच बैठकर रिपोटिंग कर रहे थे। (हम इसलिए क्योंकि इस बार मेरे साथ मेरा ही एक साथी अंकित भी रिपोर्टिंग करने गया था। ) तो इसकी रिपोर्टिंग से पहले मैं जलीस सर से बस पूछने गया कि क्या-क्या रिपोर्टिंग करनी है, तो उन्होंने कहा कि पिछले साल जैसा ही कुछ अलग लाने की कोशिश करना। इसी के साथ उन्होंने एक बात कही, "इस बार तुम वरिष्ठ रिपोर्टर की तरह रिपोर्टिंग करने जा रहे हो, तो बढ़िया से करना।" 
बस यही वो समय था जब मुझे लगा कि अब मैं छोटू नहीं रहा बल्कि बड़ा हो गया हूँ। 
किस्मत मेरे साथ थी कि इस बार भी मुझे और मेरे साथी को एक स्टोरी मिल गयी। स्टोरी ये थी कि गणतंत्र दिवस की परेड के दौरान जो लोग लोगों के चेहरे पर तिरंगा बना रहे होते हैं वो दरअसल में पानीपत के युवाओं का एक समूह है जो बस ऐसे अवसरों पर ही दिल्ली आता है और लोगों के चेहरे पर तिरंगा बनाकर अपना काम चलाता है। जलीस सर इस खबर पर खुश थे और हम इसलिए खुश थे क्योंकि सुबह के भूखे हम दोनों को जलीस सर के हाथ की बनी खीर और उनके घर के आलू पराठे खाने को मिले थे।और फिर इस बार तो खीर खाने के साथ मैं बड़ा भी हो गया था तो आनंद दुगना था।"
 इस तरह वो दिन था जब जलीस सर ने मुझे भाषा का छोटू नहीं रहने दिया। मैं उस दिन भाषा में बड़ा हो गया। हालाँकि मैं छोटू तो अभी भी हूँ लेकिन जलीस सर रिटायरमेंट से पहले मुझे भाषा में जिस तरह से बड़ा बना गए उसकी यादें तो जेहन में हैं ही।

 उनके रिटायरमेंट वाले दिन हम सभी भाषा में उनके साथ बितायी यादों का एक छोटा सा तोहफा ही उन्हें दे पाये। उस जमापूँजी की फोटो ऊपर चस्पा की है और साथ ही जलीस सर का ये एक फोटो भी साझा कर रहा हूँ जिसमें उनका सबसे पसंदीदा पौधा ट्यूब रोज है। हाँ धन्यवाद अंकित को भी देना होगा क्योंकि अगर रिटायरमेंट वाले दिन वह नहीं होता तो शायद हम अपनी यादों की ये जमापूंजी जलीस सर को कभी नहीं दे पाते...
जलीस सर अपने सबसे पसंदीदा ट्यूब रोज पौधे के साथ ...