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गुरुवार, 24 मई 2018

ये है बनारसी ब्रेड पकौड़ा...


 ज हम बनारस की तरफ चलते हैं थोड़ा, वैसे भी इतनी गर्मी में गंगा के तीरे ही थोड़ी राहत की उम्मीद है। यूँ तो बनारस को वाराणसी और काशी भी कहा जाता है लेकिन पता नहीं मुझे क्यों को इसे बनारस कहना ही पसंद है। मैं चाहकर भी इसे किसी और नाम से नहीं बुला पाता।

 मैं बनारस पहले भी जा चुका हूँ। सारनाथ देखा, जैन मंदिर देखे, घाट देखे और गंगा आरती का भी आनंद लिया। अस्सी घाट पर कुल्हड़ में चाय की चुस्की हो या गदौलिया पर ठंडाई का मज़ा, ये सब बनारस के अपने रंग हैं। मैंने सुबह-ए-बनारस में राग भी सुने हैं, तो गंगा मैया के साथ नाव की सैर करते-करते शाम-ए-अवध सा आनंद भी बनारस में लिया है।

 लेकिन इस बार की यात्रा थोड़ी अलग रही। नवंबर में मैं बनारस गया तो ऑफिस के काम से ही था। लेकिन जिस जिस कार्यक्रम में शामिल होने गया था वो कबीर से जुड़ा था। इसलिए इसका अनुभव बाकी यात्राओं से अलग रहा। कबीर से जुड़े कई पहलुओं को जानने का मौका मिला, तो वंही जुलाहा समुदाय के साथ बातचीत भी की, जो उस समय भी नोटबंदी की मार झेल रहा था।

 उस समय हमारी सुबह छह बजे दरभंगा घाट पर प्रभात के राग और गंगा पर सूर्योदय के नज़ारे से शुरू होती थी। खैर ये बात इसलिए नहीं शुरू की थी।

 तो बात यह कि जब भी बनारस की बात होती है तो वहां के खाने की भी बात होती है। फिर वो चाहे विश्वनाथ मंदिर के पास काशी की चाट हो या गोदौलिया चौक की कुल्हड़ वाली लस्सी। इन सबके बारे में बहुत कहा गया, लिखा गया। हिंदी साहित्य की कई रचनाएँ इन सबके इर्द-गिर्द बुनी गयीं। अस्सी घाट की अड़ी की दास्तान बताने वाला "काशी का अस्सी" जैसा उपन्यास तो पूरे हिंदुस्तान की राजनीति और राम मंदिर आंदोलन की कलई खोल देता है।

 इतना ही नहीं गली ठठेरान की कचौड़ियों के भी अपने चर्चे हैं और रंगीली के मलाई पान और लाल पेड़ा के भी कई किस्से सुनने को मिल जातें हैं। लेकिन इस बार मेरा परिचय एक नए तरह के नाश्ते से हुआ।

 आम तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार के इलाकों में ब्रेड पकौड़ा वैसा नहीं होता, जैसा ये दिल्ली में दिखता है। उसकी एक बड़ी वजह उसका वहां पर समोसे का विकल्प नहीं होना है, क्योंकि समोसा वो है जिसमें आलू है और ब्रेड पकौड़े में आलू का क्या काम ये समझ से परे है वहां।

 तो आप जब बनारस में लहुराबीर चौक से तेलियाबाग चौक की तरफ बढ़ते हैं, तो आपको राजकीय क्वींस इंटर कॉलेज दिखाई देता है। बस इसी के ठीक सामने मुझे अबकी बार ब्रेड पकौड़े का एक नया रूप देखने को मिला।

 हमारा होटल वंही नज़दीक में था और मेरे साथ इस यात्रा पर इम्ति भाई भी थे। चार दिन की यात्रा में शुरू के दो दिन वो मुझसे कहते रहे कि आपको ब्रेड पकौड़ा और घुघनी खिलाना है। मैं बहुत असमंजस में कि ये कौन सी बला है ?

 कितना रोचक है ना कि देशज शब्दों से हमारे दूर होने के चलते हम आम बातों का भी अर्थ नहीं समझ पाते। अब बताइये भला कि जिस बात को मैं बला समझ रहा था दरअसल वो उबला हुआ देसी चना है जिसे घुघनी कहा जाता है।

 खैर, तीसरे दिन जब गए तो दुकान हमे बंद मिली, क्योंकि रविवार को कॉलेज बंद होता है इसलिए दुकान खुलती नहीं। तो अब क्या करें ? अंत में मुकर्रर हुआ कि कल सुबह में जल्दी उठकर इसका स्वाद जरूर लिया जायेगा। अब सोमवार के दिन मैं और इम्ति भाई सुबह कुल्हड़ की चाय पीकर निकल पड़े घुघनी और ब्रेड पकौड़ा खाने को।

 वाह क्या नज़ारा था, एक कढ़ाई में गर्म-गर्म पकौड़े छन रहे थे और दूसरी ओर एक भगौने में चने या घुघनी एक दम गर्म...लेकिन मैं अभी भी ठिठका क्योंकि पकौड़े तलने के दौरान जो बेसन की बूंदियां कढ़ाई में तैर रही थी उन्हें एक अलग थाल में जमा किया जा रहा था। मैं सोच रहा कि अब इसका क्या काम ?

 लेकिन देखिये जनाब, हमने जब दो प्लेट ब्रेड पकौड़ा माँगा तो यही बची हुई बूंदियां उसकी गार्निशिंग कर रही थीं। मतलब कुछ भी बर्बाद नहीं। बढ़िया से एक दोने में ब्रेड पकौड़े के छोटे-छोटे टुकड़े और उस पर गर्म-गर्म उबले चने के साथ चटनी, वाह अलग ही मज़ा। साथ ही नींबू के रस की बूंदों ने उस मज़े को दोगुना कर दिया। उस पर वो बची हुई करारी बूंदियां ऊपर से डाली गयीं तो चने से गल गए ब्रेड पकौड़े का दुःख भी जाता रहा।

 मतलब आप सोचिये सुबह-सुबह बेसन का फाइबर पेट में पहुंच गया और शरीर के लिए जरुरी थोड़ा सा तेल भी और साथ में चने का प्रोटीन अलग, साथ में दुकान पर जमा नए लोगों से बातचीत, दोस्तों के साथ चर्चा और साथ में अगर चाय भी पी ली जाए तो आनंद ही आनंद। इसके अलावा ब्रेड से पेट भी भर गया और गयी दोपहर तक के खाने की। अब 20 रुपये में सुबह-सुबह आपको क्या चाहिए।

 मुझे लगता है कि मोदीजी के पकौड़ानॉमिक्स को भी यहीं से प्रेरणा मिली होगी।