शुक्रवार, 18 मई 2018

बहुत सी बातों पर 'राज़ी' करती एक फिल्म


 किसी भी फ़िल्म का वजूद, वह किस दौर में आयी है उस पर निर्भर करता है। चार्ली चैपलिन की 'द ग्रेट डिक्टेटर' सिर्फ इसलिए खास नहीं हैं कि वो हिटलर पर व्यंग्य करती है, या फिर वह क्राफ्ट की दृष्टि से बहुत ही बेहतरीन फिल्म है, बल्कि इन सबके बावजूद उसके अनोखे होने की एक और वजह उसका हिटलर के दौर में ही परदे पर और जनता के बीच आना थी।

 यही बात हाल में भारत में रिलीज हुई 'राज़ी' के बारे में कही जा सकती है। निर्देशक मेघना गुलज़ार ने फिल्म की कहानी पर बहुत अच्छे से काम किया है। उनकी पिछली फिल्म 'तलवार' के बाद यह उनकी नयी पेशकश है।

 मेघना की फिल्म उस दौर में आयी है जब हम अपनी 'राष्ट्र्भक्ति और 'देशभक्ति' का पैमाना सिनेमाघर में 'राष्ट्रगान' पर खड़े होने से नाप रहे हैं। यह फिल्म उस वक़्त में है जब पूरे कश्मीर को सिर्फ 'आतंकवादी' या  'देशद्रोही' मान लिया गया है।

 उस दौर में मेघना दर्शक को इस बात के लिए राज़ी करती हैं कि कश्मीरी भी देशभक्त होते हैं। उन्होंने भी इस राष्ट्र के निर्माण में अपनी भूमिका अदा की है। साथ ही यह फिल्म हमें हमारे वर्तमान के राष्ट्रभक्ति और देशभक्ति के पैमाने को दुरुस्त करने की बात पर भी राज़ी करती है। यह ‘सीमा पर हमारे जवान लड़ रहे हैं...’ के तर्क से शुरु नहीं होती बल्कि यह बताती है कि सीमा पर लड़े बिना भी अगर आप की नज़र में देश सबसे ऊपर है तो आप 19 साल की छोटी सी उम्र में भी बहुत कुछ कर सकते हैं।

 इसके अलावा यह फिल्म हमें किसी और बात के लिए राज़ी करती है तो वह है ‘अंधराष्ट्रभक्ति’ से बचने की बात पर। कैसे एक परिवार अपना सब कुछ देश के लिए लुटा देता है, फिल्म में इसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों के पक्ष से बखूबी दर्शाया गया है। राष्ट्रभक्ति दिखाने के लिए बड़े-बड़े दावे फिल्म का कोई किरदार नहीं करता, बस वह अपना काम पूरी ईमानदारी से करता है। कैसे एक पिता अपनी किशोर बच्ची को दुश्मन के घर सिर्फ इसलिए भेज देता है क्योंकि उसे देश की फिक्र है। और कैसे एक बेटी इसके लिए तैयार हो जाती है और उसके बारे में बनायी गई सोच को तोड़ते हुए अपनी सीमाओं से आगे जाकर देश की मदद करती है। यहीं फिल्म दिखाती है कि ‘अंधराष्ट्रभक्ति’ और वास्तविक ‘देशभक्ति’ में कितना अंतर है।

 आलिया भट्ट का किरदार इस बात के लिए राज़ी करता है कि देश से ऊपर कुछ नहीं, लेकिन उसमें भी मानवता को बनाए रखने की एक झलक दिखाई देती है। जहां वह भारत के देशभक्ति के पक्ष को रखती हैं तो वहीं विकी कौशल पाकिस्तान के पक्ष को फिल्म में दिखाते हैं।

 और इसी पूरी उधेड़बुन के बीच मेघना ने दोनों किरदार के बीच एक प्रेम कहानी को भी बड़े भावपूर्ण तरीके से बुना है।

 अगर बात फिल्म की स्टारकास्ट पर की जाए तो मेघना ने फिल्म के हर किरदार का चुनाव बहुत सावधानी से किया है। हर अभिनेता को अपने किरदार के साथ न्याय करने का मौका मिला है सिवाय विकी कौशल के, मेरे हिसाब से उनसे और बहुत कुछ फिल्म में कराया जा सकता था। रजित कपूर बहुत छोटी भूमिका में हैं, लेकिन प्रभाव छोड़ते हैं।

 हालाँकि आलिया भट्ट ने अपने अभिनय से सिद्ध किया है कि भले फ़िल्मी परिवार की पृष्ठभूमि से आने के चलते उनका फिल्म इंडस्ट्री में प्रवेश आसान रहा हो लेकिन उनके पास अभिनय की प्रतिभा है। आपको पूरी फिल्म में कंही भी महसूस नहीं होगा कि आप आलिया को देख रहे हैं, बल्कि आपको उनमें सिर्फ 'सहमत' नज़र आएगी। पूरी फिल्म को आलिया ने अपने कंधों पर टिकाये रखा है। इसके अलावा जयदीप अहलावत और शिशिर शर्मा भी अपनी छाप फिल्म में छोड़ते हैं।

 हालांकि फिल्म में कुछ तकनीकी खामियां हैं जिनमें एक दृश्य मेरे ज़हन में बस गया है। यदि फिल्म 1971 के दौर की बात कर रही है तो हेयरड्रायर भी उसी दौर का होना चाहिए जो कि नहीं है। ऐसी ही और कई तकनीकी खामियां है लेकिन आम दर्शक को उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

 फिल्म का संगीत, कहीं भी कहानी से कम नहीं बैठता। शंकर-एहसान-लॉय ने बहुत समय बाद लीक से हटकर संगीत दिया है और गुलज़ार के अल्फ़ाजों के साथ वह खूबसूरती से पिरोया गया है। यह बहुत हद तक आपको ‘मिशन कश्मीर’ की याद दिलायेगा। सबसे खूबसूरत फिल्म में ‘एे वतन’ गाने का फिल्मांकन है। आलिया और बच्चों के साथ फिल्माये गए इस गाने की अनोखी बात यह है कि बच्चे इस गाने को पाकिस्तान के लिए गा रहे हैं और ठीक उसी वक्त में आलिया इसे हिंदुस्तान के लिए गा रही हैं। इस गाने में इकबाल के ‘बच्चे की दुआ’ के कुछ बोलों को रखा गया है जो पाकिस्तान के स्कूलों में आज भी गायी जाती है और यह वही इकबाल हैं जिन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ लिखा है।

 ऐसे में यह फिल्म भारत-पाकिस्तान की दुश्मनी को तो दिखाती ही है लेकिन उनकी साझा विरासत को बरकरार रखने के लिए भी कहीं ना कहीं राज़ी करती है।

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

एडिटिंग की मिसाल है, एन इन्सिग्निफिकेंट मैन

फिल्म का एक दृश्य
 दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की "आम आदमी पार्टी" ने अपने पांच साल पूरे होने का जश्न हाल ही में मनाया है। पार्टी के भीतर और पार्टी से अलग हुए नेताओं की टिप्पणियां भी हुईं और विपक्षियों के आरोप-प्रत्यारोप भी। पार्टी से नाराजों के भी बोल भी रहे और पार्टी के रास्ता भटक जाने की बातें भी। इसी समय में हमारे बीच एक फिल्म आई  "एन इन्सिग्निफिकेंट मैन", मैं इसे डॉक्युमेंट्री इसलिए नहीं कहना चाहता क्योंकि ये फिल्म उससे बहुत आगे जाती है।

 इस फिल्म के राजनीतिक पहलू पर बहुत बातें हुई हैं। इससे जुड़े लोगों के बारे में भी बहुत बातें हुईं हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इस फिल्म ने एक बहुत बड़े स्टीरियोटाइप को तोड़ा है। यह मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैंने इसे महसूस किया है। फिल्म रिलीज हुई 17 नवंबर को और मैं इसे 19 को ही देख आया।

 आमतौर पर भारत में दर्शक इस तरह की फिल्मों के लिए थिएटर में पैसा नहीं खर्च करता। लेकिन इस फिल्म में कुछ अलग है, मैंने दिल्ली के अनुपम साकेत में जब यह फिल्म देखी तो हॉल खचाखच भरा पाया। इसमें भी खास बात देखने वालों में युवाओं की संख्या ज्यादा होना लगी।

 अब लोग कह सकते हैं कि केजरीवाल की ब्रांड वैल्यू इससे जुड़ी है इसलिए भीड़ चली आयी। लेकिन मेरे हिसाब से सचिन की "बिलियन ड्रीम्स" को भी ऐसा रिस्पांस नहीं मिला था, और सचिन तो पीढ़ियों पर राज करने वाला ब्रांड रहे हैं। तो फिर क्या खास है इस फिल्म में जो इसे लोगों के लिए इतना रुचिकर बनाता है।

 मेरे हिसाब से इस फिल्म की एडिटिंग इसकी जान है और यही इसे इतना खास बनाती है। मैंने शुरू में ही कहा कि इसे डॉक्युमेंट्री कहना इससे जुड़े लोगों की काबिलियत को काम आंकना होगा। मुझे नहीं लगता कि इसके निर्देशकों के पास किसी तरह के फुटेज की कमी रही होगी, लेकिन उन फुटेजों का कैसे और कहाँ इस्तेमाल करना है। कैसे फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाना है, ये काम किया है इसकी एडिटिंग ने।

 फिल्म में एक दृश्य जो मुझे प्रभावित कर गया वो था केजरीवाल का सत्याग्रह फिल्म देखकर थिएटर से बाहर निकलना और एक टीवी रिपोर्टर को इंटरव्यू देना। उस दौरान कैमरा का एक फोकस केजरीवाल के अपनी शर्ट के कोने से साथ खेलने को दिखाता है। यह अपने आप में किसी फिल्म के नायक के चरित्र को स्थापित करने वाला दृश्य है।

 यह किसी फीचर फिल्म की तरह ही अपने नायक को गढ़ने का दृश्य है। फिर धीरे-धीरे फिल्म में योगेंद्र यादव का असर दिखना शुरू होता है, जो बताता है कि फिल्म में नायक है लेकिन एक प्रति नायक भी है। प्रति नायक शब्द का इस्तेमाल हूँ क्योंकि योगेंद्र खलनायक नहीं हैं।

 चूँकि नायक अरविन्द हैं तो फिल्म में खलनायक होना तो जरुरी है ही, और इसके लिए चुना गया उस समय दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित को। उनके ऐसे फुटेज इस्तेमाल किये गए जो आपको बरबस हंसने पर मजबूर कर देंगे। फिर वह चाहें चुनाव प्रचार के दौरान दलेर मेहंदी के गाने पर उनका मेज थपथपाना हो या चुनाव नामांकन के दौरान अरविन्द के ऊपर जोक सुनाना। यह उनके चरित्र को फिल्म में पूरी तरह खलनायक तो नहीं लेकिन उसके लगभग बराबर ही रखता है।

 फिल्म बोझिल न लगे इसलिए इसमें एक मसाला फिल्म के लगभग सभी मसाले दिखते हैं। जब आप पार्टी की नेता संतोष कोली की मौत हो जाती है तो उसके अगले दिन की एक सभा का फुटेज फिल्म में इस्तेमाल  किया गया है। उस दृश्य में अरविन्द के चेहरे पर वह सारे भाव नज़र आते हैं जो इस घड़ी में हक़ीक़त में होने चाहिए और ये दृश्य फिल्म के नायक को दर्शक के करीब लाता है।

 ऐसा ही एक और दृश्य है जहाँ एक मोहल्ला सभा में एक महिला अरविन्द को पावर देने की बात करती है। इस फुटेज को फिल्म में रखने का निर्णय बताता है कि निर्देशक अपने चरित्र को कैसे गढ़ना चाहता है। फिल्म में एक दृश्य कुमार विश्वास और अरविन्द के बीच हास-परिहास का भी है। यह हमारे नेताओं के बीच आम इंसान की तरह होने वाले हंसी मजाक के साथ-साथ उनकी एक मिथक छवि को तोड़ने का भी काम करता है।

 भारतीय समाज अपने नेता को इंसान मानने के लिए तैयार ही नहीं है। वह या तो कोई दैवीय पुरुष, शक्ति या परमावतार होता है, वह इंसान नहीं होता। इसलिए जब हम उनके लिए कहानी या फिल्म लिखते हैं तो वह "लार्जर देन लाइफ" होती है। एक समय में अरविन्द ने इस छवि को तोडा था और यह फिल्म उसी को आगे बढाती है। यह हमे हमारे नेताओं को अपने बीच का समझने में मदद करती है।

 और अंत में एक बात फिल्म बनाने वालों के लिए, हिंदी में "मुख्यमंत्री" सही शब्द है, "मुख्यामंत्री" नहीं जैसा कि फिल्म के अंत में लिखा दिखाया गया है।

फिल्म के निर्देशक विनय और खुशबू

सोमवार, 27 नवंबर 2017

कुछ यूँ बदल गयी हमारी खिलौनों की दुनिया

कनॉट प्लेस के डी ब्लॉक में राम चन्दर एंड संस का बोर्ड
 म सभी ने अपने बचपन में खिlलौनों के साथ वक़्त बिताया जरूर होगा। लेकिन इस बार मैंने वक़्त बिताया उस शख्स के साथ जो अपने जीवन के 62-64 साल इन खिलौनों के बीच बिता चुका है। पाँच पीढ़ियों से चल रही अपनी खिलौनों की दुकान में न जाने उसने कितने बच्चों के अरमान सजते देखें होंगे और कितनों के टूटते भी।

 हालांकि मैंने ये स्टोरी अपने काम के चलते की थी लेकिन ऐसा बहुत कुछ रह गया जो वहां कह नहीं पाया। दिल्ली के दिल कहे जाने वाले कनॉट प्लेस में अंग्रेजों के ज़माने की कई दुकानें हैं। इन्हीं में एक नाम ओडियन सिनेमा के बगल वाली राम चन्दर एंड संस का है।

 इसके बारे में कहा जाता है कि यह भारत की सबसे पुरानी खिलौने की दुकान है। लगता भी ऐसा ही है क्योंकि 1890 में शुरू हुई इस दुकान के अंदर आप जैसे ही दाखिल होंगे आपको लगेगा ही नहीं यह कनॉट प्लेस की ही कोई दुकान है।
अपनी उसी बेतरतीब टेबल के साथ वाली कुर्सी पर सतीश सुंदरा
 कनॉट प्लेस में जहाँ कांच के शोकेसों वाली दुकानें तमाम तरह के दीप आभूषण धारण किये मिलती हैं। इस दुकान को देखकर पहली नजर में आपको किसी गोदाम में जाने की अनुभूति होगी। सब सामान इधर-उधर बेतरतीब सा पड़ा है। इन्हीं के बीच में दाहिने तरफ एक दराजों वाली टेबल है जिस पर एक कम्प्यूटर है और ढेर सारा सामान भी साथ ही बगल की कुर्सी पर कोई 70-75 साल बुजर्ग बैठा है।

यह बुजुर्ग व्यक्ति सतीश सुंदरा हैं जो इस दुकान से जुड़े परिवार की चौथी पीढ़ी से हैं। करीब आठ साल की उम्र में दुकान पर बैठना शुरू कर चुके सतीश अभी अपने बेटा-बहू के साथ मिलकर इस दुकान को चलाते हैं।

 दुकान पर बैठने की अपनी शुरुआत के बारे में सतीश बड़े रोमांच के साथ बताते हैं,
''मेरे परिवार में मारवाड़ी माहौल था। इसलिए मैं सात—आठ साल की उम्र से ही दुकान पर बैठने लगा। तब से अब तक मैंने खिलौनों की इस दुनिया को बड़े नजदीक से बदलते देखा है।"
 बकौल सतीश 1940 के दशक में भारत में ज्यादातर खिलौने ब्रिटेन-अमेरिका से आते थे। तब खिलौनों में रेलगाड़ियां अहम होती थीं। इसमें भी सबसे ज्यादा जर्मनी की गाड़ियों को पसंद किया जाता था। मुझे खुद एक इलैक्ट्रानिक रेलगाड़ी बहुत पसंद थी। इसके अलावा ब्लॉक आपस में जोड़ने वाले खिलौनों का ही विकल्प हमारे पास होता था।

 हमारे परिवार की कुल पांच दुकानें थी। पहली दुकान अम्बाला में खुली और 1935 में यह यहां कनॉट प्लेस में आ गयी। पिताजी और उनके भाइयों के बीच बाद में ये दुकानें बंट गयी और फिर मेरे और भाई के बीच भी बंटवारा हुआ। सबने अपनी दुकानें बेच दी। शिमला और कसौली में भी हमारी दुकान थी लेकिन अब बस यही एक बची है।

  बकौल सतीश खिलौनों की दुनिया में अमेरिका और ब्रिटेन के दबदबे को चुनौती जापान ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद देनी शुरू की। 1950 के दशक में जापान ने कबाड के टिन से खिलौने बनाने शुरु किए। उसने अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़े खिलौने बनाने शुरू किये। हम खुद 1969 तक इनका भारत में बेरोकटोक आयात करते थे। लोग इसे बहुत पसंद करते थे। बाद में 1970 में सरकार ने कई तरह के आयात पर रोक लगा दी और यह रोक 1980 के दशक तक जारी रही।

 वर्ष 1980 के दशक में आयात तो खुल गया लेकिन तब तक खिलौने जापान से ताइवान चले गए। तभी कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक खिलौने आये। बाद में 2000 के बाद से चीन ने इसमें अपनी साख बनायी है। लेकिन एक बात जो यूरोपीय खिलौनों में थी तो वो थी ''दादा खरीदे, पोता बरते'' लेकिन अब यह बात कहीं नहीं बची।

 बीते के दिनों को याद करते हुए सतीश कहते हैं कि तब का दौर और था। हमारे पास खिलौनों के साथ खेलने का वक़्त होता था। मेले-तमाशे होते थे, आँगन और गलियों में भी बच्चे खेला करते थे। अब तो पार्कों में भी जाने पर बच्चे खेलते नहीं दिखते। मेरे भी जानकारी में कई बच्चे हैं जिन्हें मोबाइल वगैरह पर खेलते हुए देखकर बड़ा कष्ट होता है।

 बड़े कौतुहल के साथ सतीश बताते हैं कि हर खिलौना एक शिक्षा देता है। किसी भी बच्चे के शारीरिक, मानसिक और तार्किक विकास में खिलौनों की भूमिका होती है। बचपन में मेलों में मैंने एक खेल देखा है जिसमें एक इलैक्ट्रॉनिक तार से एक छल्ले को पार निकालना होता था। सोचिए यह बच्चों को कितना ज्यादा एकाग्र बनाता था। यह बात बताते हुए उनकी आँखों में एक अजब तरह की चमक उभर आती है।

 आजकल ​िखलौनों की जगह फिल्मों से जुडी मर्चेंडाइज ने ले ली है। इनके आने से एक तो बच्चों में थोड़ी हिंसक प्रवृत्ति बढ़ने लगी और हमारे खुद के चरित्रों और नायकों को हम अपने बच्चों के जीवन में वह स्थान नहीं दिला पाए जो सुपरमैन वगैरह को मिला।

 एक और बात जो मुझे कचोटती है, वो यह कि आजकल माँ-बाप बच्चे को खिलौना तो दिला देते हैं। लेकिन उसके साथ समय नहीं बिताते। ना ही उस खिलौने को लेकर बच्चे के साथ खेलते हैं। देखा जाए तो हमारे बच्चे आजकल बहुत अकेले हो गए हैं।

सतीश जी की बहू दीप्ति दिव्या
 हमारी दुकान का विशेष नियम है कि हम बच्चे को वही खिलौना देते हैं जो उसकी उम्र के हिसाब से सही हो।  सिर्फ बेचने के लिए खिलौना हम नहीं बेचते। हम चाहते हैं कि बच्चे अपने खिलौने का पूरा मज़ा उठायें ताकि उसका बचपन भी यादों से भरा हो।