सोमवार, 5 अक्तूबर 2020

अटकन-चटकन : इस एक फिल्म में पूरा बचपन जी लिया

  

कुछ दिन पहले जी5 पर एक फिल्म देखी ‘अटकन-चटकन’....

फिल्म की कहानी बहुत साधारण सी, कोई तुर्रमबाजी नहीं। एक मजदूर वर्ग का बच्चा जिसकी रुचि संगीत में लेेकिन घर चलाने के लिए चाय की दुकान पर काम करता है। परेशान बचपन में अपना प्रिय कोई तो छोटी बहन और एक किताब बेचने वाला दोस्त। किसी तरह जुगाड़ कर करके संगीत बजाता है और फिर चार लोगों की एक मंडली तैयार हो जाती है जो कबाड़ के सामान से संगीत रचती है।

 

कुछ-कुछ कहानी मुंबई के धारावी-रॉक्स की तरह...

लेकिन मुझे फिल्म इसकी कहानी, ट्रीटमेंट की वजह से पंसद नहीं आयी और ना ही तकनीकी खामियों की वजह से मैं इसे दरकिनार कर सकता हूं।
मेरे फिल्म पसंद करने की वजह इसका मेरे बचपन से सीधी जुड़ा होना और हर एक सीन में बचपन को जी लेना है।
फिल्म की शूटिंग झांसी के गली-मोहल्लों में हुई है और उन गलियों में हम हाफ पैंट में घूमे-फिरे हैं।
फिल्म में मुख्य किरदार गुड्डू जिस चाय की दुकान पर काम करता है, ‘तिवारी चाय’ वह नवरात्र के दिनों में दुर्गा पंडाल पर देर रात तक बैठने के चलते लगने वाली भूख मि्टाने का ठिकाना होता है शहर के लोगों का। रात को तीन बजे भी जाएंगे तो चाय और आलू के पराठे आपका पेट भर देंगे।
फिर गुड्डू जब झांसी की गलियों में थपथपाते हुए घूमता है तो ‘सिंघल कार्ड’ नाम से खुद के चाचा की दुकान दिखती है। मानिक चौक से लेकर झरना गेट तक के बाजार दिखते हैं और जब गुड्डू अपने जमनिया गांव से बस की छत पर बैठकर शहर आता है तो लक्ष्मी दरवाजे से गुजरता दिखता है।
इस लक्ष्मी दरवाजे का भी शहर के दुर्गा उत्सव से अनोखा रिश्ता है। नवरात्रों में देवी की प्रतिमा के विसर्जन के लिए जब इस दरवाजे से गुजरना होता है तो कंधे पर प्रतिमा उठाकर चलते नौजवानों को उस दौरान प्रतिमा हथेलियों पर संभालनी होती है। इतना ही नहीं पूरे 90 डिग्री के कोण पर 20-20 फुट ऊंची प्रतिमाओं को घुमाना होता है।
फिर गुड्डू जब विदेशियों के सामने अपना पहला परफॉर्मेस देता है तो ओरछा के मंदिर की याद आ जाती है। उसके पीछे भूल-भुलैया दिखायी दे रही होती है। जहां से उसे तानसेन संगीत विद्यालय के प्रधानाचार्य अपने साथ ले जाते हैंं। वह जिस स्कूल में ले जाते हैं वह असल में तानसेन संगीत विद्यालय नहीं बल्कि शहर का सबसे पुराना डिग्री कॉलेज बिपिन बिहारी कॉलेज है।
गुड्डू स्कूल के बच्चों के सामने जहां अपना पहला परफॉर्मेंस देता है वह शहर का गणेश मंदिर है, इसी मंदिर में झांसी की रानी की शादी हुई और मैंने छह साल लगातार उस मंच पर तबला बजाया।
फिल्म में जहां आखिरी प्रतियोगिता होती है, उस मैदान पर आठवीं तक पढ़ाई की है और पत्थर की गेंद बनाकर ना जाने कितने जूते फाड़े हैं।

मेरा मानना है कि इस फिल्म में झांसी के छोटे शहर को जितनी बेहतरीन तरह से दर्शाया गया है वह बहुत कम देखने को मिलता है। कहानी सिर्फ गुड्डू की नहीं बल्कि झांसी शहर भी कहानी का हिस्सा है।
वरना बॉलीवुड में बनारस, लखनऊ, कानपुर जैसे कई शहरों की कहानी अक्सा दिखायी जाती है लेकिन अधिकतर फिल्मों में कहानी का हिस्सा नहीं बन पाते, सिर्फ लोकेशन भर रह जाते हैं। अटकन-चटकन इसी को तोड़ती है।
कहानी में बनारस को देखना हो तो पंकज कपूर की ‘धर्म’ देखिए, कोलकाता को देखना हो तो विद्या बालन की ‘कहानी’, लेेकिन अगर लखनऊ देखना हो तो अमिताभ बच्चन की ‘गुलाबो-सिताबो’ बिल्कुल नहीं देंखें।

गुरुवार, 31 मई 2018

'समय' कुछ कहना चाहता है...

पुराने नगर का एक अलंकरण
 "मैं समय हूँ।" दूरदर्शन पर जब 'महाभारत' की कहानी सुनाने के लिए ये आवाज आती थी तो शायद उस 'समय' को खुद नहीं पता था कि उसे ऐसा भी एक वक़्त देखना होगा, जो बीते समय को ही हमारा दुर्भाग्य बता दे। किसी का भी अतीत उसके वर्तमान का आईना होता है, क्योंकि हमारे वर्तमान की मीनार उसी नींव पर खड़ी होती है।


 अभी जो समय है वो हमें बताने पे तुला है कि एक दौर में हम विश्वगुरु थे, लेकिन कब और कहाँ ये उसे भी नहीं पता। हालाँकि हो सकता है कि उस बात में सच्चाई हो, लेकिन इतिहास तथ्य पर चलता है। ऐसे में अगर एक प्रदर्शनी आपको अपने अतीत के करीब ले जाये, आपको उस समय में जीने का मौका दे और इतना ही नहीं आपको आपकी वैश्विक हैसियत से भी रूबरू कराये तो उससे बेहतर क्या हो सकता है ?

सिंधु सभ्यता से जुड़ा एक खिलौना
 पिछले हफ्ते जब दफ्तर से एक दिन की छुट्टी मिली तो मैं भी पहुँच गया इंडिया गेट के पास नेशनल म्यूजियम, जहाँ 'भारत और विश्व : नौ कहानियों में इतिहास' प्रदर्शनी लगी है। यहाँ न सिर्फ मुझे हिदुस्तान के 20 संग्रहालयों या टाटा ट्रस्ट जैसे कुछ निजी संग्रहों की वस्तुएं देखने को मिली, बल्कि लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम से आयी कई तरह की ऐतिहासिक वस्तुओं ने भी मेरा ध्यान खींचा।

 यह प्रदर्शनी दरअसल एक रास्ता है इतिहास के उन रोशन झरोखों में झांकने का, जो कभी हमारे पूर्वजों का वर्तमान हुआ करता था। यह वो गलियारा है जहाँ हम अपने और विश्च के साझा इतिहास में चहलकदमी कर सकते हैं। यह किसी को भी मानव सभ्यता के आदिकाल से सभ्य समाज तक आने की क्रमवार जानकारी तो देती ही है। साथ ही भारत के विश्व इतिहास से जुड़ाव और उसके आधुनिक राष्ट्र बनने तक के सफर से रूबरू कराती है।

मरियम
युद्ध के देवता
 जैसे ही मैंने प्रदर्शनी में प्रवेश किया मुझे ‘साझा शुरुआत’ खंड मिला। इसमें भारत में मिले आदिमानव काल के पत्थर के औजार और उसी जैसे अफ्रीका में मिले एक पत्थर के औजार के बीच तुलना करके देखी जा सकती है कि हमारी और उनकी विकास गाथा में हम कितना इतिहास साझा करते हैं। इसके आगे प्रदर्शनी में दुनियाभर में मिले बर्तनों की समानता दिखती है, जिसने मानव को खाने के भंडारण और उसमें विविधता लाने के लिए प्रेरणा दी।

सिकंदर महान की एक मूर्ति
 आगे बढ़ा तो मुझे ‘पहले शहर’ नाम का खंड मिला, यहाँ मैंने देखा कि कैसे उस शुरुआती समय में भी भारत के आम जनमानस ने सिंधु सभ्यता और उसके नगरों का निर्माण किया और कैसे लगभग उसी समय विकसित हुईं मेसोपोटामिया और मिस्र की सभ्यताएं हमें विश्व इतिहास में करीब लाती हैं। इसके बाद जब मैं आगे बढ़ा तो मेरा सामना ‘साम्राज्य’ खंड से हुआ। यह बताता है कि हम अकेले नहीं थे जिसने दुनिया में साम्राज्यों का दौर देखा। जहां भारत के मौर्य साम्राज्य की झलक यहाँ देखी जा सकती है, वहीं चीन और मिस्र के साम्राज्यों का इतिहास भी यहाँ दिखता है।

इस्लामी कला का एक नमूना 
 इस खंड में विभिन्न साम्राज्यों के सिक्के भी रखे गए हैं जो बताते हैं कि कैसे साम्राज्य अपनी मान्यता के लिए सिक्कों का प्रयोग करते थे। कैसे इन सिक्कों ने व्यक्ति पूजा को स्थापित किया। जब सिक्के इस्लाम जगत में पहुंचते हैं तो कैसे व्यक्ति और राज्य के गुणगान का स्थान कुरान की आयतें सिक्कों पर ले लेती हैं। चीन के सिक्के भी इस खंड में हैं। इन सिक्कों के बीच में छेद है जिसकी वजह इन सिक्कों को रस्सी में बांधकर रखे जाने के लिए सुविधाजनक बनाना था।

 सिक्कों से निकलकर धर्म और राज्य मूर्ति विधा में कैसे पहुंचा और उसने साम्राज्य के वर्णन के साथ-साथ कला और चित्रकारी को नया रूप कैसे दिन इसकी जानकारी मुझे अगले खंड ‘चित्रित और मनोहारी वर्णन’ में मिली। इस खंड में ब्रिटिश म्यूजियम से लायी गई कई कलाकृतियां ऐसी थी जिसने मेरा मन मोहा। मां मरियम, यीशू मसीह के अलावा कबीलाई ईश्वर, युद्ध के देवता और काष्ठ की बनी कई मूर्तियों के साथ कपड़े पर उकेरी गई इस्लामिक चित्रकारी ने  इतिहास के खूबसूरत पहलू की जानकारी करायी। आगे ‘भारतीय समुद्र व्यापार’ खंड में भारत के विश्व के साथ होने वाले समुद्री व्यापार की झलक देखने को मिली। यह खंड दिखाता है कि कैसे व्यापारिक आदान-प्रदान ने हमारी संस्कृति को प्रभावित किया।
राणा संग्राम की ढाल

रोमन शैली की काली मिर्च की डिब्बी
 यहां ब्रिटिश संग्रहालय से आयी एक 300 से 400 ईसवी की एक पुरानी काली मिर्च छिड़कने की डिब्बी ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि मानव सभ्यता में हमारा वर्तमान कितना कलाहीन होता जा रहा है। उस समय में मानव ने कैसे इतनी मामूली वस्तुओं में भी कला को इतना निखरा रुप दिया। यह कहीं ना कहीं वर्तमान में हमारे कलाबोध के ह्रास को दिखाती है। 

अकबर की युद्ध पोशाक
 इससे आगे  ‘दरबारी संस्कृति’ खंड में मुझे मुगल दरबार की शानोशौकत दिखी। इसमें अकबर की युद्ध पोशाक और तलवार के साथ राजपूतों के शौर्य को दर्शाती कला से परिपूर्ण राणा संग्राम सिंह की एक ढाल ने थोड़ी देर मुझे वंही खड़े रखा। इस ढाल पर उनकी कई लड़ाइयों की चित्रकारी की गयी है। इतना ही नहीं इस खंड में मैंने ईसाई संस्कृति के राजसी प्रतीक भी देखे।

 इसके बाद ‘आजादी के जुनून’ में भारत की आजादी की लड़ाई के कई पहलू और अंत में ‘असीमित काल’ खंड में वर्तमान में जारी युद्धक सोच और उससे समाज पर पड़ते प्रभाव यहाँ बहुत अच्छे से दिखाया गया है।



 कुल मिलाकर इसे एक बार जरूर देखा जा सकता है। अभी तो यह 30 जून तक यहाँ लगी है, तो देख लीजिये, क्योंकि वर्तमान में जब हम इतिहास का कुछ बिखरा कुछ धुंधला स्वरूप देख रहे हैं तो इस तरह की प्रदर्शनियां उसे एक नयी रोशनी देती हैं।

 साथ एक वीडियो भी साझा कर रहा हूँ...



गुरुवार, 24 मई 2018

ये है बनारसी ब्रेड पकौड़ा...


 ज हम बनारस की तरफ चलते हैं थोड़ा, वैसे भी इतनी गर्मी में गंगा के तीरे ही थोड़ी राहत की उम्मीद है। यूँ तो बनारस को वाराणसी और काशी भी कहा जाता है लेकिन पता नहीं मुझे क्यों को इसे बनारस कहना ही पसंद है। मैं चाहकर भी इसे किसी और नाम से नहीं बुला पाता।

 मैं बनारस पहले भी जा चुका हूँ। सारनाथ देखा, जैन मंदिर देखे, घाट देखे और गंगा आरती का भी आनंद लिया। अस्सी घाट पर कुल्हड़ में चाय की चुस्की हो या गदौलिया पर ठंडाई का मज़ा, ये सब बनारस के अपने रंग हैं। मैंने सुबह-ए-बनारस में राग भी सुने हैं, तो गंगा मैया के साथ नाव की सैर करते-करते शाम-ए-अवध सा आनंद भी बनारस में लिया है।

 लेकिन इस बार की यात्रा थोड़ी अलग रही। नवंबर में मैं बनारस गया तो ऑफिस के काम से ही था। लेकिन जिस जिस कार्यक्रम में शामिल होने गया था वो कबीर से जुड़ा था। इसलिए इसका अनुभव बाकी यात्राओं से अलग रहा। कबीर से जुड़े कई पहलुओं को जानने का मौका मिला, तो वंही जुलाहा समुदाय के साथ बातचीत भी की, जो उस समय भी नोटबंदी की मार झेल रहा था।

 उस समय हमारी सुबह छह बजे दरभंगा घाट पर प्रभात के राग और गंगा पर सूर्योदय के नज़ारे से शुरू होती थी। खैर ये बात इसलिए नहीं शुरू की थी।

 तो बात यह कि जब भी बनारस की बात होती है तो वहां के खाने की भी बात होती है। फिर वो चाहे विश्वनाथ मंदिर के पास काशी की चाट हो या गोदौलिया चौक की कुल्हड़ वाली लस्सी। इन सबके बारे में बहुत कहा गया, लिखा गया। हिंदी साहित्य की कई रचनाएँ इन सबके इर्द-गिर्द बुनी गयीं। अस्सी घाट की अड़ी की दास्तान बताने वाला "काशी का अस्सी" जैसा उपन्यास तो पूरे हिंदुस्तान की राजनीति और राम मंदिर आंदोलन की कलई खोल देता है।

 इतना ही नहीं गली ठठेरान की कचौड़ियों के भी अपने चर्चे हैं और रंगीली के मलाई पान और लाल पेड़ा के भी कई किस्से सुनने को मिल जातें हैं। लेकिन इस बार मेरा परिचय एक नए तरह के नाश्ते से हुआ।

 आम तौर पर उत्तर प्रदेश और बिहार के इलाकों में ब्रेड पकौड़ा वैसा नहीं होता, जैसा ये दिल्ली में दिखता है। उसकी एक बड़ी वजह उसका वहां पर समोसे का विकल्प नहीं होना है, क्योंकि समोसा वो है जिसमें आलू है और ब्रेड पकौड़े में आलू का क्या काम ये समझ से परे है वहां।

 तो आप जब बनारस में लहुराबीर चौक से तेलियाबाग चौक की तरफ बढ़ते हैं, तो आपको राजकीय क्वींस इंटर कॉलेज दिखाई देता है। बस इसी के ठीक सामने मुझे अबकी बार ब्रेड पकौड़े का एक नया रूप देखने को मिला।

 हमारा होटल वंही नज़दीक में था और मेरे साथ इस यात्रा पर इम्ति भाई भी थे। चार दिन की यात्रा में शुरू के दो दिन वो मुझसे कहते रहे कि आपको ब्रेड पकौड़ा और घुघनी खिलाना है। मैं बहुत असमंजस में कि ये कौन सी बला है ?

 कितना रोचक है ना कि देशज शब्दों से हमारे दूर होने के चलते हम आम बातों का भी अर्थ नहीं समझ पाते। अब बताइये भला कि जिस बात को मैं बला समझ रहा था दरअसल वो उबला हुआ देसी चना है जिसे घुघनी कहा जाता है।

 खैर, तीसरे दिन जब गए तो दुकान हमे बंद मिली, क्योंकि रविवार को कॉलेज बंद होता है इसलिए दुकान खुलती नहीं। तो अब क्या करें ? अंत में मुकर्रर हुआ कि कल सुबह में जल्दी उठकर इसका स्वाद जरूर लिया जायेगा। अब सोमवार के दिन मैं और इम्ति भाई सुबह कुल्हड़ की चाय पीकर निकल पड़े घुघनी और ब्रेड पकौड़ा खाने को।

 वाह क्या नज़ारा था, एक कढ़ाई में गर्म-गर्म पकौड़े छन रहे थे और दूसरी ओर एक भगौने में चने या घुघनी एक दम गर्म...लेकिन मैं अभी भी ठिठका क्योंकि पकौड़े तलने के दौरान जो बेसन की बूंदियां कढ़ाई में तैर रही थी उन्हें एक अलग थाल में जमा किया जा रहा था। मैं सोच रहा कि अब इसका क्या काम ?

 लेकिन देखिये जनाब, हमने जब दो प्लेट ब्रेड पकौड़ा माँगा तो यही बची हुई बूंदियां उसकी गार्निशिंग कर रही थीं। मतलब कुछ भी बर्बाद नहीं। बढ़िया से एक दोने में ब्रेड पकौड़े के छोटे-छोटे टुकड़े और उस पर गर्म-गर्म उबले चने के साथ चटनी, वाह अलग ही मज़ा। साथ ही नींबू के रस की बूंदों ने उस मज़े को दोगुना कर दिया। उस पर वो बची हुई करारी बूंदियां ऊपर से डाली गयीं तो चने से गल गए ब्रेड पकौड़े का दुःख भी जाता रहा।

 मतलब आप सोचिये सुबह-सुबह बेसन का फाइबर पेट में पहुंच गया और शरीर के लिए जरुरी थोड़ा सा तेल भी और साथ में चने का प्रोटीन अलग, साथ में दुकान पर जमा नए लोगों से बातचीत, दोस्तों के साथ चर्चा और साथ में अगर चाय भी पी ली जाए तो आनंद ही आनंद। इसके अलावा ब्रेड से पेट भी भर गया और गयी दोपहर तक के खाने की। अब 20 रुपये में सुबह-सुबह आपको क्या चाहिए।

 मुझे लगता है कि मोदीजी के पकौड़ानॉमिक्स को भी यहीं से प्रेरणा मिली होगी।